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________________ ९३ . नरकगतिदुःख-वर्णन वे दया-रहित नारकी जीव ही कृकवाक (कुक्कुट-मुर्गा) गिद्ध, काक, आदिके रूपोंको धारण करके वज्रमय चोंचोसे, तीक्ष्ण नखों और दांतोंसे उसे नोचते है ॥ १६६ ॥ धरिऊण उड्ढजंघं करकच-चक्केहिं केइ फाडंति । मुसलेहिं मुग्गरेहि य चुण्णो चुण्णी कुणंति परे ।।१६७॥ __ कितने ही नारकी उसे ऊर्ध्वजध कर अर्थात् शिर नीचे और जांधे ऊपर कर करकच (करोंत या आरा) और चक्र से चीर फाड़ डालते है। तथा कितने ही नारकी उसे मूसल और मुद्गरोंसे चूरा-चूरा कर डालते है ॥ १६७ ॥ जिब्भालेयण णयणाण फोडणं दंतचूरणं दलणं । मलणं कुणंति खंडंति केई तिलमत्तखंडेहिं ॥१६॥ कितने ही नारकी जीभ काटते है, आंखें फोड़ते है, दांत तोडते है और सारे शरीरका दलन-मलन करते है। कितने ही नारकी तिल-प्रमाण खडोंसे उसके टुकड़े-टुकड़े कर डालते है ॥ १६८ ॥ अण्णे कलंववालुय थलम्मि तत्तम्मि पाडिऊण पुणो । लोहाविति रडतं णिहणंति घसंति भूमीए ॥१६९।। कितने ही नारकी तपाये हुए तीक्ष्ण रेतीले मैदानमे डालकर रोते हुए उसे लोट-पोट करते है, मारते हैं और भूमिपर घसीटते है ॥ १६९ ॥ असुख वि कूरपावा तस्थ वि गंतूण पुब्बवेराइ । सुमराविऊण तो जुद्ध लायंति अण्णोण्णं ॥१७॥ __क्रूर और पापी असुर जातिके देव भी वहां जाकर और पूर्वभवके वैरोंकी याद दिलाकर उन नारकियोंको आपसमे लड़वाते है । १७० ॥ सत्तेव अहोलोए पुढवीश्रो तत्थ सयसहस्साई। णिरयाणं चुलसीई सेटिंद-पइण्णयाण हवे ॥१७॥ अधोलोकमें सात पृथिवियां हैं, उनमें श्रेणीबद्ध, इन्द्रक और प्रकीर्णक नामके चौरासी लाख नरक है ॥ १७१ ॥ रयणप्पह-सक्करपह-बालुप्पह-पंक-धूम-तमभासा। तमतमपहा य पुढवीणं जाण अणुवत्थणामाई"॥१७२॥ उन पृथिवियोंके रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, वालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमप्रभा और तमस्तमप्रभा (महातमप्रभा) ये अन्वर्थ अर्थात् सार्थक नाम जानना चाहिए ॥ १७२ ॥ पढमाए पुढवीए वाससहस्साई दह जहण्णाऊ । समयम्मि वरिणया सायरोवमं होइ उक्कस्सं ॥१७३॥ पढमाइ जमुक्कस्सं विदियाइसु साहियं जहरणं तं । तिय सप्त दस य सत्तरस दुसहिया बीस तेत्तीसं ॥१७॥ सायरसंखा एसा कमेण विदियाइ जाण पुढवीसु । उक्कस्साउपमाणं णिहिट जिएवरिंदेहि ॥१७५॥ . .. म. चुण्णीकुम्वति परे गिरया। २ कलबवालुय-कदवप्रसूनाकारा वालुकाचितदुश्प्रवेशाः वज्रदलालकृतखदिरांगार- कशाप्रकरोपमानाः । मूलारा गा० १५६८ विजयोदया टीका। ३ ब. जुष्स। इ. अनुतृतथ०, म अणुवढ० । ५ मुद्रितप्रतौ गाथेय रिक्ता । १३
SR No.010731
Book TitleVasunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1952
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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