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________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार है, मुझे पीनेको और दो ॥७२॥ उस बेसुध पड़े हुए मद्यपायीके पास जो कुछ द्रव्य होता है, उसे दूसरे लोग हर ले जाते हैं । पुनः कुछ संज्ञाको प्राप्तकर अर्थात् कुछ होशमें आकर गिरता-पड़ता इधर-उधर दौड़ने लगता है ॥७३॥ और इस प्रकार बकता जाता है कि जिस बदमाशने आज मेरा द्रव्य चुराया है और मझे ऋद्ध किया है, उसने यमराजको ही क्रुद्ध किया है, अब वह जीता बचकर कहाँ जायगा, मैं तलवारसे उसका शिर काढूंगा ॥७४॥ इस प्रकार कुपित वह गरजता हुआ अपने घर जाकर लकड़ीको लेकर रुष्ट हो सहसा भांडों (बर्तनों) को फोड़ने लगता है ॥७५॥ वह अपने ही पुत्रको, बहिनको, और अन्य भी सबको-जिनको अपनी इच्छाके अनुकूल नहीं समझता है, बलात् मारने लगता है और नहीं बोलने योग्य वचनोंको बकता है । मद्य-पानसे प्रबल उन्मत्त हुआ वह भले-बुरेको कुछ भी नहीं जानता है ॥७६।। मद्यपानके वशको प्राप्त हुआ वह इन उपर्यक्त कार्योको, तथा और भी अनेक लज्जा-योग्य निर्लज्ज कार्योको करके बहुत पापका बंध करता है ॥७७॥ उस पापसे वह जन्म, जरा और मरणरूप श्वापदों (सिंह, व्याघ्र आदि क्रूर जानवरोंसे) आकीर्ण अर्थात् भरे हुए संसाररूपी कान्तार (भयानक वन) में पड़कर अनन्त दुःखको पाता है ॥७८॥ इस तरह मद्यपानमें अनेक प्रकारके दोषोंको जान करके मन, वचन, और काय, तथा कृत, कारित और अनुमोदनासे उसका त्याग करना चाहिए ॥७९॥ मधुदोष-वर्णन जह मज्ज तह य महू जणयदि पावं णरस्स अइबहुयं । असुइ व्व शिंदणिजं वज्जेयव्वं पयत्तेण ॥८॥ दहण असणमज्झे पडियं जइ मच्छियं पि णिद्विवइ । कह मच्छियंडयाणं णिजासं णिग्घिणो पिबई ॥८॥ भो भो जिभिदियलुद्धयाणमच्छरय' पलोएह । किमि मच्छियणिज्जासं महं पवित्तं भणंति जदो ॥२॥ लोगे वि सुप्पसिद्धं बारह गामाइ जो डहइ अदो। तत्तो सो अहिययरो पाविट्ठो जो महुं हणइ ॥३॥ जो अवलेहई णिच्चं णिरय' सो जाई णत्थि संदेहो। एवं णाऊण फुडं वज्जेयव्वं महुँ तम्हा ॥८॥ मद्यपानके समान मधु-सेवन भी · मनुष्यके अत्यधिक पापको उत्पन्न करता है। अशुचि (मल-मूत्र वमनादिक) के समान निंद्यनीय इस मधुका प्रयत्नपूर्वक त्याग करना चाहिए ॥८०॥ भोजनके मध्यमें पड़ी हुई मक्खी को भी देखकर यदि मनुष्य उसे उगल देता है अर्थात् मुंहमें रखे हुए ग्रासको थूक देता है तो आश्चर्य है कि वह मधु-मक्खियोंके अंडोंके निर्दयतापूर्वक निकाले हुए घृणित रसको अर्थात् मधुको निर्दय या निर्धण बनकर कैसे पी जाता है ॥८१॥ भो-भो लोगो, जिह्वेन्द्रिय-लुब्धक (लोलुपी) मनुष्योंके आश्चर्य को देखो, कि लोग मक्खियोंके रसस्वरूप इस मधुको कैसे पवित्र कहते हैं ॥४२॥ लोकमें भी यह कहावत' प्रसिद्ध है कि जो निर्दयी बारह गांवोंको जलाता है, उससे भी अधिक १. नियसिं निश्श्रोटनं निबोडनमिति । प. निःपीलनम्। ध, निर्यासम् । २. ध, मच्छेयर । ३मास्वादयति। ४. नियं। ५प. जादि । ६ म. नाऊण ।
SR No.010731
Book TitleVasunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1952
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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