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________________ अजीवतत्त्व-वर्णन परिणामजुदो जीबो गइगमणुवलंभो असंदेहो। वह पुग्गलो य पाहणपहुइ-परिणामदंसणा गाउं ॥२६॥ जीव परिणामयुक्त अर्थात् परिणामी है, क्योंकि उसका स्वर्ग, नरक आदि गतियोमे निःसन्देह गमन पाया जाता है। इसी प्रकार पाषाण, मिट्टी आदि स्थूल पर्यायोंके परिणमन देखे जानेसे पुद्गलको परिणामी जानना चाहिए ॥२६॥ वंजणपरिणइविरहा धम्मादीा हवे अपरिणामा। अत्थपरिणाममासिय सव्वे परिणामिणो अत्था ॥२७॥ धर्मादिक अर्थात् धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश और काल, ये चार द्रव्य व्यंजनपर्यायके अभावसे अपरिणामी कहलाते है। किन्तु अर्थपर्यायकी अपेक्षा सभी पदार्थ परिणामी माने जाते है, क्योंकि अर्थपर्याय सभी द्रव्योंमें होती है ॥२७॥ जीवो हु जीवदव्वं एक्कं चिय चेयणाचुया सेसा । मुत्तं पुग्गलदव्वं रूवादिविलोयणा ण सेसाणि ॥२८॥ एक जीवद्रव्य ही जीवत्व धर्मसे युक्त है, और शेष सभी द्रव्य चेतनासे रहित है । एक पुद्गलद्रव्य ही मूर्तिक है, क्योकि, उसीमे ही रूप, रसादिक देखे जाते है। शेष समस्त द्रव्य अमूत्तिक है, क्योंकि, उनमे रूपादिक नहीं देखे जाते है ॥२८॥ सपएस पंच कालं मुत्तण पएससंचया ऐया । अपएसी खलु कालो पएसबंधच्चुदो जम्हा ॥२९॥ कालद्रव्यको छोड़कर शेष पांच द्रव्य सप्रदेशी जानना चाहिए; क्योकि उनमे प्रदेशोंका संचय पाया जाता है । कालद्रव्य अप्रदेशी है, क्योंकि, वह प्रदेशोंके बंध या समूहसे रहित है, अर्थात् कालद्रव्यके कालाणु भिन्न भिन्न ही रहते है ॥२९॥ धम्माधम्मागासा एगसरूवा पएसअविश्रोगा। ववहारकाल-पुग्गल-जीवा हु अणेयरूवा ते ॥३०॥ धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाश, ये तीनों द्रव्य एक-स्वरूप है, अर्थात् अपने स्वरूप या आकारको बदलते नहीं है, क्योंकि, इन तीनों द्रव्योंके प्रदेश परस्पर अवियुक्त है अर्थात् समस्त लोकाकाशमे व्याप्त है । व्यवहारकाल, पुद्गल और जीव, ये तीन द्रव्य अनेकस्वरूप हैं, अर्थात् वे अनेक रूप धारण करते हैं ॥३०॥ आगासमेव खितं अवगाहणलक्खणं जदो भणियं । सेसाणि पुणोऽखित्तं अवगाहणलक्खणाभावा ॥३॥ एक आकाशद्रव्य ही क्षेत्रवान् है, क्योंकि, उसका अवगाहन लक्षण कहा गया है। शेष पांच द्रव्य क्षेत्रवान् नहीं हैं, क्योंकि उनमें अवगाहन लक्षण नही पाया जाता है ॥३१॥ सक्किरिय जीव-पुग्गल गमणागमणाइ-किरियउवलमा। सेसाणि पुण वियाणसु किरियाहीणाणि तदभावा ॥३२॥ • जीव और पुद्गल ये दो क्रियावान् हैं, क्योंकि, इनमें गमन, आगमन आदि क्रियाएं पाई जाती है। शेष चार द्रव्य क्रिया-रहित है, क्योंकि, उनमें हलन-चलन आदि क्रियाएं नहीं पाई जाती हैं ॥३२॥ १ घसक्किरिया पुणु जीवा पुग्गल गमणाई'।
SR No.010731
Book TitleVasunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1952
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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