SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 60
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ क्षुल्लक और ऐलक तेषां स्यादुचितं लिंगं स्वयोग्यव्रतधारिणाम् । एकशाटकधारित्वं संन्यासमरणावधि ॥१७१॥-श्रादिपु० पर्व ४०. श्रा०जिनसेनने दीक्षार्ह कुलीन श्रावककी 'दीक्षाद्य क्रिया से अदीक्षाह, अकुलीन श्रावककी दीद्याद्य क्रियामै क्या भेद रखा है, यह यहाँ जानना श्रावश्यक है। वे दोनोंको एक वस्त्रका धारण करना समानरूपसे प्रतिपादन करते हैं, इतनी समानता होते हुए भी वे उसके लिए उपनीति संस्कार अर्थात् यज्ञोपवीतके धारण आदिका निषेध करते हैं, और साथ ही स्व-योग्य व्रतोंके धारणका विधान करते हैं। यहाँ परसे ही दीक्षाद्यक्रियाके धारकों के दो भेदोंका सूत्रपात प्रारंभ होता हुआ प्रतीत होता है, और संभवतः ये दो भेद ही आगे जाकर ग्यारहवीं प्रतिमाके दो भेदोंके आधार बन गये हैं। 'स्व योग्य-व्रतधारण से प्रा० जिनसेनका क्या अभिप्राय रहा है, यह उन्होने स्पष्ट नहीं किया है। पर इसका स्पष्टीकरण प्रायश्चित्तचूलिक के उस वर्णनसे बहुत कुछ हो जाता है, जहाँपर कि प्रायश्चित्तचूलिकाकारने कारु-शूद्रोंके दो भेद करके उन्हें व्रत-दान आदिका विधान किया है । प्रायश्चित्तचूलिकाकार लिखते हैं : कारिणो द्विविधाः सिद्धा भोज्याभोज्यप्रभेदतः। . भोज्येष्वेव प्रदातव्यं सर्वदा क्षुल्लकवतम् ॥१५॥ अर्थात्-कारु शूद्र भोज्य और अभोज्यके भेदसे दो प्रकारके प्रसिद्ध हैं, उनमेंसे भोज्य शूद्रोंको ही सदा क्षुल्लक व्रत देना चाहिए। इस ग्रन्थके संस्कृत टीकाकार भोज्य पदकी व्याख्या करते हुए कहते हैं : भोज्या:-यदण्नपानं ब्राह्मणक्षत्रियविक्षुद्रा भुंजन्ते । अभोज्या:-तद्विपरीतलक्षणाः । भोज्ये- । ब्वेव प्रदातव्या क्षुल्लकदीक्षा, नापरेषु । अर्थात्-जिनके हाथका अन्न पान ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र खाते हैं, उन्हें भोज्य कारु कहते हैं। इनसे विपरीत अभोज्यकार जानना चाहिए। क्षुल्लक व्रतकी दीक्षा भोज्य कारों में ही देना चाहिए, अभोज्य कारोंमे नहीं। इससे आगे क्षुल्लकके व्रतों का स्पष्टीकरण इस प्रकार किया गया है : क्षुल्लकेवेककं वस्त्रं नान्यन्न स्थितिभोजनम् । आतापनादियोगोऽपि तेषां शश्वन्निषिध्यते ॥ १५५ ।। शौरं कुर्याच्च लोचं वा पाणौ भुक्तेऽथ भाजने । कौपीनमात्रतंत्रोऽसौ क्षुल्लकः परिकीर्तितः॥ १५६ ॥ अर्थात्-क्षुल्लकोंमें एक ही वस्त्रका विधान किया गया है, वे दूसरा वस्त्र नहीं रख सकते । वे मुनियों के समान खड़े-खड़े भोजन नहीं कर सकते । उनके लिए प्रातापन योग, वृक्षमूल योग आदि योगोंका भी शाश्वत निषेध किया गया है। वे उस्तरे आदिसे क्षौरकर्म शिरोमुंडन भी करा सकते है और चाहें, तो केशोंका लोंच भी कर सकते हैं। वे पाणिपात्रमें भी भोजन कर सकते हैं और चाहें तो कांसेके पात्र आदिमें भी भोजन कर सकते हैं। ऐसा व्यक्ति जो कि कौपीनमात्र रखनेका अधिकारी है, क्षुल्लक कहा गया है । टीकाकारोंने कौपीनमात्रतंत्रका अर्थ-कर्पटखंडमंडितकटीतटः अर्थात् खंड वस्त्रसे जिसका कटीतट मंडित हो, किया है, और क्षुल्लकका अर्थ-उत्कृष्ट अणुव्रतधारी किया है। आदिपुराणकारके द्वारा अदीक्षाई पुरुषके लिए किये गये व्रतविधानकी तुलना जब हम प्रायश्चित्तचूलिकाके उपर्युक्त वर्णनके साथ करते हैं, तब असंदिग्ध रूपसे इस निष्कर्षपर पहुंचते हैं कि जिनसेनने जिन अदीक्षाहं पुरुषोंको संन्यासमरणावधि तक एक वस्त्र और उचित व्रत-चिह्न आदि धारण करनेका विधान किया है, उन्हें ही प्रायश्चित्तचूलिकाकारने 'क्षुल्लक' नामसे उल्लेख किया है ।
SR No.010731
Book TitleVasunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1952
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy