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________________ श्रावक-प्रतिमाओका आधार कालकृत नियम भी शिथिल था। पर तीसरी प्रतिमा सामायिकका तीनों संध्याश्रोमें किया जाना आवश्यक है और वह भी एक बारमें कमसे कम दो घड़ी या एक मुहूर्त (४८ मिनिट) तक करना ही चाहिए। सामायिकका उत्कृष्ट काल छह घड़ी का है। इस प्रतिमाधारीको सामायिक-सम्बन्धी दोषोंका परिहार भी आवश्यक बताया गया है । इस प्रकार तीसरी प्रतिमाका आधार सामायिक नामका प्रथम शिक्षाव्रत है। चौथी प्रोषध प्रतिमा है, जिसका अाधार प्रोषधोपवास नामक दूसरा शिक्षाव्रत है। पहले यह अभ्यास दशामें था, अतः वहाँपर सोलह, बारह या आठ पहरके उपवास करनेका कोई प्रतिबन्ध नही था, श्राचाम्ल, निर्विकृति आदि करके भी उसका निर्वाह किया जा सकता था। अतीचारोकी भी शिथिलता थी। पर इस चौथी प्रतिमामें निरतिचारता और नियतसमयता आवश्यक मानी गई है। इस प्रतिमाधारीको पर्वके दिन स्वस्थ दशामें सोलह पहरका उपवास करना ही चाहिए। अस्वस्थ या असक्त अवस्थामें ही बारह या आठ पहरका उपवास विधेय माना गया है। ___ इस प्रकार प्रथम और द्वितीय शिक्षाव्रतके आधारपर तीसरी और चौथी प्रतिमा अवलम्बित है, यह निर्विवाद सिद्ध होता है । श्रागेके लिए पारिशेषन्यायसे हमें कल्पना करनी पड़ती है कि तीसरे और चौथे शिक्षाव्रतके आधारपर शेष प्रतिमाएँ भी अवस्थित होनी चाहिए। पर यहाँ आकर सबसे बड़ी कठिनाई यह उपस्थित होती है कि शिक्षाव्रतोंके नामोंमें प्राचार्योंके अनेक मत-भेद है जिनका यहाँ स्पष्टीकरण आवश्यक है। उनकी तालिका इस प्रकार है: प्राचार्य या ग्रन्थ नाम प्रथम शिक्षाबत द्वितीय शिक्षाव्रत तृतीय शिक्षाबत चतुर्थ शिक्षाव्रत १ श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र न० १ . सामायिक प्रोषधोपवास अतिथि पूजा सल्लेखना २ श्रा० कुन्दकुन्द ३ , स्वामिकार्तिकेय देशावकाशिक ४ , उमास्वाति भोगोपभोगपरिमाण अतिथिसंविभाग ५ , समन्तभद्र देशावकाशिक सामायिक प्रोषधोपवास वैयावृत्त्य ६ , सोमदेव सामायिक प्रोषधोपवास भोगोपभोगपरिमाण दान ७ ,, देवसेन अतिथिसंविभाग सल्लेखना ८श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र नं. २ भोगपरिमाण उपभोगपरिमाण ६ वसुनन्दि भोगविरति उपभोगविरति आचार्य जिनसेन, अमितगति, श्राशाधर आदिने शिक्षाव्रतोंके विषपमें उमास्वातिका अनुकरण किया है। उक्त मत-भेदोमे शिक्षाव्रतोंकी संख्याके चार होते हुए भी दो धाराएं स्पष्टतः दृष्टिगोचर होती हैं। प्रथम धारा श्रावकप्रतिक्रमण सूत्र नं०१ की है, जिसके समर्थक कुन्दकुन्द जैसे महान् आचार्य हैं। इस परम्परामें सल्लेखनाको चौथा शिक्षाबत माना गया है। दूसरी धाराके प्रवर्तक श्राचार्य उमास्वाति आदि दिखाई देते हैं, जो कि मरणके अन्तम की जानेवाली सल्लेखनाको शिक्षाव्रतोंमें ग्रहण न करके उसके स्थानपर भोगोपभोग-परिमाणव्रतका निर्देश करते हैं और अतिथिसंविभामको तीसरा शिक्षाबत न मानकर चौथा मानते हैं। इस प्रकार यहाँ आकर हमें दो धाराओंके संगमका सामना करना पड़ता है। इस समस्याको हल करते समय हमारी दृष्टि श्रावकप्रतिक्रमणसूत्र नं. १ और नं० २ पर जाती है, जिनमेसे एकके समर्थक श्रा० कुन्दकुन्द और दूसरेके समर्थक श्रा० वसुनन्दि हैं। सभी प्रतिक्रमणसूत्र गणधर-ग्रथित माने जाते हैं, ऐसी दशामें एकही श्रावकप्रतिक्रमणसूत्रके ये दो रूप कैसे हो गये, और वे भी कुन्दकुन्द और उमास्वातिके पूर्व ही, यह एक विचारणीय प्रश्न है। ऐसा प्रतीत होता है कि भद्रबाहुके समयमें होनेवाले दुर्भिक्षके कारण जो संघभेद हुअा, उसके साथ ही एक श्रावकप्रतिक्रमणसूत्रके भी दो भेद हो गये। दोनों सूत्रोंकी समस्त प्ररूपणा " १ ये दोनों श्रावकप्रतिक्रमणसूत्र क्रियाकलापमें मुद्रित हैं, जिसे कि पं० पन्नालालजी सोनीने सम्पादित किया है।
SR No.010731
Book TitleVasunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1952
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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