SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 49
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार श्रा० सोमदेवके इस कथनसे एक और नवीन बातपर प्रकाश पड़ता है, वह यह कि वे प्रातःकालके मौनंपूर्वक पूजनको, मध्याह्नमे भक्तिपूर्वक दिये गये मुनि-दानको और शामको की गई तत्त्वचर्चा, स्तोत्र पाठ या धमापदेश आदिको हो गृहस्थकी त्रैकालिक सामायिक मान रहे हैं। इसी प्रकरणमे स्तवन, नाम-जपन और ध्यान-विधिका भी विस्तारसे वर्णन किया गया है। प्रोषधोपवास और भोगोपभोग-परिमाणका संक्षेपसे वर्णन कर अतिथिसंविभाग शिक्षाव्रतका यथाविधि, यथादेश, यथाश्रागम, यथापात्र और यथाकालके आश्रयसे विस्तृत वर्णन किया है। अन्तमे दाताके सप्तगुण और नवधा भक्तिकी चर्चा करते हुए कहा है कि भोजनमात्रके देने में तपस्वियोकी क्या परीक्षा करना ? यही एक बड़ा आश्चर्य है कि श्राज इस कलिकालमें-जब कि लोगोंके चित्त अत्यन्त चचल हैं, और देह अन्नका कीट बना हुआ है, तब हमें जिनरूपधारी मनुष्योंके दर्शन हो रहे हैं। अतः उनमे प्रतिमाओंमे अर्हन्तको स्थापनाके समान पूर्व मुनियोंकी स्थापना करके उन्हें पूजना और भक्तिपूर्वक श्राहार देना चाहिए'। साधुओं की वैयावृत्त्य करनेपर भी अधिक जोर दिया गया है। अन्तमै उन्होंने श्रावकोंकी ग्यारह प्रतिमानोंके नाममात्र दो श्लोकोंमें गिनाये हैं, इसके अतिरिक्त उनके ऊपर अन्य कोई विवेचन नहीं किया है। वे श्लोक इस प्रकार हैं: मूलव्रतं व्रतान्यर्चा पर्वकर्माकृषिक्रियाः। दिवा नवविधं ब्रह्म सचित्तस्य विवर्जनम् ॥ परिग्रहपरित्यागो भुक्तिमात्रानुमान्यता । तद्धानौ च बदन्त्येतान्येकादश यथाक्रमम् ॥ अर्थात्-१ मूलवत, २ उत्तरखत, ३ अर्चा या सामायिक, ४ पर्वकर्म या प्रोषध, ५ अकृषिक्रिया या पापारम्भत्याग, ६ दिवा ब्रह्मचर्य, ७ नवधा ब्रह्मचर्य, ८ सचित्तत्याग, ६ परिग्रहत्याग, १० भुक्तिमात्रानुमान्यता या शेषानुमति त्याग, ११ भुक्ति अनुमतिहानि या उद्दिष्ट भोजनत्याग ये यथाक्रमसे ग्यारह श्रावकपद माने गये हैं। दि० परम्पराकी प्रचलित परम्पराके अनुसार सचित्त त्यागको पाँचवीं और कृषि आदि प्रारम्भके त्यागको आठवीं प्रतिमा माना गया है, पर सोमदेवके तर्कप्रधान एवं बहुश्रुत चित्तको यह बात नहीं जॅची कि कोई व्यक्ति सचित्त भोजन और स्त्रीका परित्यागी होनेके पश्चात् भी कृषि आदि पापारम्भवाली क्रियाश्रोको कर सकता है ? अतः उन्होंने प्रारम्भ त्यागके स्थानपर सचित्त त्याग और सचित्त त्यागके स्थानपर प्रारम्भत्याग प्रतिमाको गिनाया। श्वे. आचार्य हरिभद्रने भी सचित्तत्यागको आठवीं प्रतिमा माना है। सोमदेवके पूर्ववर्ती या परवर्ती किसी भी दि० श्राचार्यके द्वारा उनके इस मतकी पुष्टि नहीं दिखाई देती। इसके पश्चात् प्रतिमाओंके विषयमें एक और श्लोक दिया है जो कि इस प्रकार है: अवधिवतमारोहेत्पूर्व-पूर्वव्रतस्थितः । सर्वत्रापि समाः प्रोक्ता ज्ञानदर्शनभावनाः ॥-यशस्ति० प्रा० ८ . अर्थात्-पूर्व पूर्व प्रतिमारूप व्रतमें स्थित होकर अवधि व्रतपर आरोहण करे। ज्ञान और दर्शनकी भावनाएँ तो सभी प्रतिमाओंमें समान कही हैं। इस पद्यमें दिया गया 'अवधिवत' पद खास तौरसे विचारणीय है। क्या सोमदेव इस पदके द्वारा श्वेताम्बर-परम्पराके समान प्रतिमाओंके नियत-कालरूप अवधिका उल्लेख कर रहे हैं, अथवा अन्य कोई अर्थ उन्हें अभिप्रेत है ? १ भुक्तिमानप्रदाने हि का परीक्षा तपस्विनाम् । ते सन्तः सन्त्वसन्तो वा गृही दानेन शुद्धयति । काले कलौ चले चित्ते देहे चान्नादिकीटके । एतच्चित्रं यदद्यापि जिनरूपधरा नराः॥ यथा पूज्यं जिनेन्द्राणां रूपं लेपादिनिर्मितम् । तथा पूर्वमुनिच्छाया पूज्याः संप्रति संयताः॥ -यशस्ति० प्रा०८
SR No.010731
Book TitleVasunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1952
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy