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________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार गुरुका स्वरूप, आठ अंगो और तीन मूढताअोके लक्षण, मदोके निराकरणका उपदेश, सम्यग्दर्शन, ज्ञान चारित्रका लक्षण, अनुयोगोंका स्वरूप, सयुक्तिक चारित्रकी आवश्यकता और श्रावकके बारह व्रतो तथा ग्यारह प्रतिमाओका इतना परिमार्जित और सुन्दर वर्णन अन्यत्र देखनेको नहीं मिलता। श्रावकोंके आठ मूलगुणोंका सर्वप्रथम वर्णन हमे रत्नकरण्डकमें ही मिलता है। श्वे० परम्पराके अनुसार पाँच अणुव्रत मूल गुण रूप और सात शीलव्रत उत्तर गुण रूप हैं और इस प्रकार श्रावकोंके मूल और उत्तर गुणों की सम्मिलित संख्या १२ है । पर दि० परम्परामे श्रावकोके मूलगुण ८ और उत्तरगुण १२ माने जाते है। स्वामिसमन्तभद्रने पाँच स्थूल पापोके और मद्य, मास, मधुके परित्यागको अष्टमूलगुण कहा है, पर श्रावकके उत्तरगुणोंकी संख्याका कोई उल्लेख नहीं किया है। हाँ, परवर्ती सभी प्राचार्योंने उत्तरगुणों की संख्या १२ ही बताई है। ___ इसके अतिरिक्त समन्तभद्रने अपने सामने उपस्थित आगम साहित्यका अवगाहन कर और उनके तत्त्वो को अपनी परीक्षा-प्रधान दृष्टिसे कसकर बुद्धि-ग्राह्य ही वर्णन किया है । उदाहरणार्थ-तत्त्वार्थसूत्रके सन्मुख होते हुए भी उन्होने देशावकाशिकको गुणव्रत न मानकर शिक्षाबत माना और भोगोपभोग परिमाणको चारित्रपाइड कार्तिकेयानुप्रेक्षाके समान गुणव्रत ही माना। उनकी दृष्टि इस बातपर अटकी कि शिक्षाव्रत तो अल्पकालिक साधना रूप होते हैं, पर भोगोपभोगका परिमाण तो यमरू पसे यावजीवन के लिए भी होता है फिर उसे शिक्षाव्रतोंमें कैसे गिना जाय ! इसके साथ ही दूसरा संशोधन देशावकाशिकको स्वामिकार्तिकेयके समान चौथा शिक्षाव्रत न मानकर प्रथम माननेके रूपमे किया। उनकी तार्किक दृष्टिने उन्हें बताया कि सामायिक और प्रोषधोपवासके पूर्व ही देशविकाशिकका स्थान होना चाहिए क्योकि उन दोनोकी अपेक्षा इसके कालकी मर्यादा अधिक है। इसके सिवाय उन्होंने श्रा० कुन्दकुन्दके द्वारा प्रतिपादित सल्लेखनाको शिक्षा व्रत रूपसे नहीं माना। उनकी दार्शनिक दृष्टिको यह जॅचा ही नहीं कि मरणके समय की जानेवाली सल्लेखना जीवन भर अभ्यास किये जानेवाले शिक्षाव्रतोंमे कैसे स्थान पा सकती है ? अतः उन्होंने उसके स्थानपर वैयावृत्य नामक शिक्षाव्रतको कहा। सूत्रकारने अतिथि-संविभाग नामक चौथा शिक्षाव्रत कहा है, पर उन्हे यह नाम भी कुछ संकुचित या अव्यापक जॅचा, क्योंकि इस व्रतके भीतर वे जितने कार्योंका समावेश करना चाहते थे, वे सब अतिथि-संविभाग नामके भीतर नहीं आ सकते थे। उक्त संशोधनोके अतिरिक्त अतीचारोंके विषयमे भी उन्होंने कई संशोधन किये। तत्त्वार्थसूत्रगत परिग्रहपरिमाणवतके पाँचों अतीचार तो एक 'अतिक्रमण' नाममे ही आ जाते हैं, फिर उनके पचरूपताकी क्या सार्थकता रह जाती है, अतः उन्होंने उसके स्वतंत्र ही पाँच अतीचारोंका प्रतिपादन किया। इसी प्रकार तत्त्वार्थसूत्रगत भोगोपभोग-परिमाणके अतीचार भी उन्हे अव्यापक प्रतीत हुए क्योंकि वे केवल भोगपर ही घटित होते हैं, अतः इस व्रतके भी स्वतंत्र अतीचारोंका निर्माण किया । और यह दिखा दिया कि वे गतानुगतिक या श्राज्ञाप्रधानी न होकर परीक्षाप्रधानी हैं। इसी प्रकार एक संशोधन उन्होंने ब्रह्मचर्याणुव्रतके अतीचारोमें भी किया। उन्हें इत्वरिकापरिगृहीतागमन और इत्वरिकाअपरिगृहीतागमनमै कोई खास भेद दृष्टि १ मद्यमांसमधुत्यागैः सहाणुव्रतपंचकम् । अष्टौ मूलगुणानाहुगृहिणां श्रमणोत्तमाः ॥६६॥-रखक० २ अणुव्रतानि पंचैव त्रिप्रकारं गुणवतम् । शिक्षाव्रतानि चत्वारि गुणाः स्युादशोत्तरे ॥-यशस्तिलक० प्रा० ७. ३ अतिवाहनातिसंग्रहविस्मयलोभातिभारवहनानि । परिमितपरिग्रहस्य च विक्षेपाः पंच लक्ष्यन्ते ॥६२॥-रत्नक० ४ विषयविषतोऽनुपेक्षानुस्मृतिरतिलौल्यमतितृषानुभवी। भोगोपभोगपरिमाव्यतिक्रमाः पंच कथ्यन्ते ॥९॥-रत्नक०
SR No.010731
Book TitleVasunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1952
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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