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________________ ४४ वसुनन्दि-श्रावकाचार ११ कार्यानुमोदविरत और १२ उद्दिष्टाहारविरत'। इनमे प्रथम नामके अतिरिक्त शेष नाम ग्यारह प्रतिमाअोंके हैं। यतः श्रावकको व्रत-धारण करनेके पूर्व सम्यग्दर्शनका धारण करना अनिवार्य है, अतः सर्वप्रथम एक उसे भी गिनाकर उन्होने श्रावक-धर्मके १२ भेद बतलाये हैं और उनका वर्णन पूरी ८५ गाथाओंमे किया है। जिनमेसे २० गाथाओंमै तो सम्यग्दर्शनको उत्पत्ति, उसके भेद, उनका स्वरूप, सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टिकी मनोवृत्ति और सम्यक्त्वका माहात्म्य बहुत सुन्दर ढंगसे वर्णन किया है, जैसा कि अन्यत्र दृष्टिगोचर नहीं होता । तत्पश्चात् दो गाथाओं द्वारा दार्शनिक श्रावकका स्वरूप कहा है, जिसमें बताया गया है कि जो त्रस-समन्वित या त्रस-घातसे उत्पन्न मांस, मद्य श्रादि निंद्य पदार्थों का सेवन नहीं करता, तथा दृढ़चित्त, वैराग्य-भावना-युक्त और निदान-रहित होकर एक भी व्रतको धारण करता है, वह दार्शनिक श्रावक है। तदनन्तर उन्होंने व्रतिक श्रावकके १२ व्रतोका बड़ा हृदयग्राही, तलस्पर्शी और स्वतंत्र वर्णन किया है, जिसका अानन्द उनके ग्रन्थका अध्ययन करके ही लिया जा सकता है। इन्होने कुन्दकुन्द-सम्मत तीनों गुणवतोको तो माना है, परन्तु शिक्षाव्रतो मे कुन्दकुन्द-स्वीकृत सल्लेखना को न मानकर उसके स्थानपर देशावकाशिकको माना है । इन्होंने ही सर्वप्रथम अनर्थदंडके पाँच भेद किये हैं। स्वामिकार्तिकेयने चारो शिक्षाबतों का विस्तारके साथ विवेचन किया है । सामयिक शिक्षाबतके स्वरूपमें अासन, लय, काल आदिका वर्णन द्रष्टव्य है । इन्होंने प्रोषधोपवास शिक्षाव्रतमें उपवास न कर सकनेवालेके लिए एकभक्त, निर्विकृति आदिके करनेका विधान किया है । अतिथि-संविभाग शिक्षा व्रतमे यद्यपि चारों दानोंका निर्देश किया है, पर अाहार दानपर खास जोर देकर कहा है कि एक भोजन दानके देने पर शेष तीन स्वतः ही दे दिये जाते हैं। चौथे देशावकाशिक शिक्षाव्रत में दिशाओंका संकोच और इन्द्रियविषयोंका सवरण प्रतिदिन आवश्यक बताया है। इसके पश्चात् सल्लेखना के यथावसर करनेकी सूचना की गई है । सामायिक प्रतिमाके स्वरूपमे कायोत्सर्ग, द्वादश भावत, दो नमन ओर चार प्रणाम करनेका विधान किया है। प्रोषध प्रतिमामें सोलह पहरके उपवासका विधान किया है। सचित्तत्यागप्रतिमाधारीके लिए सर्व प्रकारके सचित्त पदार्थोके खानेका निषेध किया है और साथ ही यह भी आदेश दिया है कि जो स्वयं सचित्त का त्यागी है उसे सचित्त वस्तु अन्यको खानेके लिए देना योग्य नही है, क्योंकि खाने और खिलानेमे कोई भेद नहीं है। रात्रि-भोजन-त्याग प्रतिमाघारीके लिए कहा है जो चतुर्विध आहारको स्वयं न खानेके समान अन्यको भी नहीं खिलाता है वही निशि भोजन विरत है। ब्रह्मचर्य प्रतिमाधारी के लिए देवी, मनुष्यनी, तिर्यचनी और चित्रगत सभी प्रकारकी स्त्रियोंका मन, वचन, कायसे अभिलाषाके त्यागका विधान किया है। प्रारम्भविरत प्रतिमाधारीके लिए कृत, कारित और अनुमोदनासे प्रारम्भका त्याग आवश्यक बताया है। परिग्रह-त्याग प्रतिमामे बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रहके त्यागनेका विधान किया है। अनुमतिविरतके लिए १ तेणुवइठो धम्मो संगासत्ताण तह असंगाणं । पढमो बारहभेो दसभेश्रो भासिओ विदिओ ॥३०॥ सम्मईसणसुद्धो रहियो मज्जाइथूलदोसेहिं । वयधारी सामइओ पव्ववई पासुबाहारी ॥३०५॥ राईभोयणविरो मेहुण-सारंभ-संगचत्तो य । कज्जाणुमोयविरो उहिट्ठाहारविरो य ॥३०६॥ २ भोयणदाणे दिपणे तिपिण वि दाणाणि होति दिण्णाणि ॥३६३॥ ३ जो णेय भक्खेदि सयं तस्स ण अण्णस्स जुज्जदे दाउं। __ भुत्तस्स भोजिदस्स हि णस्थि विसेसो तदो को वि ॥३०॥ १ जो चउविहं पि भोज्ज रयणीए णेव भुजदेणाणी । ण य भुंजावइ अण्णं णिसिविरमओ हवे भोज्जो ॥३८२॥ ५ जो आरंभ ण कुणदि अण्णं कारयदि णेय अणुमण्णो । हिंसासंत्तहमणो चत्तारंभो हवे सो हि ॥३८५॥-स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा
SR No.010731
Book TitleVasunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1952
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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