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________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार १४-वसुनन्दि का प्रभाव वसुनन्दि श्रावकाचारका प्रभाव हीनाधिक मात्रामे सभी परवती श्रावकाचारोंपर है। वसुनन्दिसे लगभग १५० वर्ष पीछे हुए पं० श्राशाधरजीने तो प्राचार्य वसुनन्दिके मतको श्रद्धापूर्ण शब्दोंमे व्यक्त किया है। यथा: 'इति वसुनन्दिसैद्धान्तिकमते'। सागार० अ. ३ श्लो० १६ की टीका । 'इति वसुनन्दि सैद्धान्तिकमतेन-दर्शनप्रतिमायां प्रतिपन्नस्तस्येदं तन्मतेनैवं व्रतप्रतिमा विभ्रतो ब्रह्माणुवुतं स्यात् ।'-सागार०अ०४ श्लो० ५२ की टीका उपर्युक्त उल्लेखोंमे प्रयुक्त सैद्धान्तिक पदसे उनका महत्ता स्पष्ट है। पं. आशाधरजी ने ग्यारहवी प्रतिमाका जो वर्णन किया है उसपर वसुनन्दिके प्रस्तुत उपासकाध्यनका स्पष्ट प्रभाव है । पाठक प्रस्तुत ग्रन्थकी ३०१ से ३१३ तककी गाथाओंका निम्न श्लोकों के साथ मिलान करें: स द्वेधा प्रथमः श्मश्रुमूर्धजानपनाययेत् । सितकौपीनसंव्यानः कर्त्ता वा क्षुरेण वा ॥३८॥ स्थानादिषु प्रतिलिखेत् मृदूपकरणेन सः । कुर्यादेव चतुष्पामुपवासं चतुर्विधम् ॥३९॥ स्वयं समुपविष्टोऽद्यात्पाणिपात्रेऽथ भाजने । स श्रावकगृहं गत्वा पात्रपाणिस्तदङ्गणे ॥४०॥ स्थित्वा भिक्षां धर्मलाभं भणित्वा प्रार्थयेत वा। मौनेन दर्शयित्वाऽङ्ग लाभालाभे समोऽचिरात् ॥४१॥ निर्गत्यान्यद्गृहं गच्छेद्भिक्षोद्युक्तस्तु केनचित् । भोजनायार्थितोऽद्यात्तद् भुक्त्वा यद्भिक्षितं मनाक ॥४२॥ प्रार्थयेतान्यथा भिक्षां यावत्स्वोदरपूरणीम् । लभेत प्रासु यत्राम्भस्तन संशोध्य तां चरेत् ॥४३॥ श्राकांक्षन् संयम भिक्षापात्रक्षालनादिषु । स्वय यतेत चादर्पः परथाऽसंयमो महान् ॥४४॥ ततो गत्वा गुरूपान्तं प्रत्याख्यानं चतुर्विधम् । गृह्णीयाद्विधिवत्सर्व गुरोश्वालोचयेत्पुरः ॥४५॥ यस्त्वेकभिक्षानियमो गत्वाद्यादनुमुन्यसौ। भुक्त्यभावे पुनः कुर्यादुपवासमवश्कयम् ॥१६॥ तद्वद् द्वितीयः किन्त्वार्यसंज्ञो लुञ्चत्यसौ कचान् । कौपीनमात्रयुग्धत्ते यतिवत्प्रतिलेखनम् ॥४७॥ स्वपाणिपात्र एवात्ति सशोध्यान्येन योजितम् । इच्छाकारं समाचार मिथः सर्वे तु कुर्वते ॥४८॥ श्रावको वीरचार्याहः प्रतिमातापनादिषु । स्यान्नाधिकारी सिद्धान्तरहस्याध्ययनेऽपि च ॥४९॥-सागारधर्मा० अ०७ पं० अाशाधरजी और उनके पीछे होने वाले सभी श्रावकाचार-रचयिताओंने यथावसर वसुनन्दिके उपासकाध्ययनका अनुसरण किया है । गुणभूषणश्रावकाचारके रचयिताने तो प्रस्तुत ग्रन्थकी बहुभाग गाथाओंका संस्कृत रूपान्तर करके अपने ग्रन्थकी रचना की है, यह बात दोनों ग्रन्थों के मिलान करनेपर सहज ही में पाठकके हृदयमें अंकित हो जाती है।
SR No.010731
Book TitleVasunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1952
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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