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________________ ३३ वसुनन्दि-श्रावकाचार की विशेषताएँ (स) देशव्रतके समान ही अनर्थदण्ड व्रतका स्वरूप भी श्रा० वसुनन्दिने अनुपम और विशिष्ट कहा है । वे कहते हैं कि "खड्ग, दड, पाश, अस्त्र आदिका न बेंचना, कूटतुला न रखना, हीनाधिक मानोन्मान न करना, क्रूर एवं मास-भक्षी जानवरोंका न पालना तीसरा गुणवत है।" ( देखो गाथा नं० २१६) अनर्थदण्डके पाँच भेदोके सामने उक्त लक्षण बहुत छोटा या नगण्य-सा दिखता है। पर जब हम उसके प्रत्येक पदपर गहराईसे विचार करते हैं, तब हमें यह उत्तरोत्तर बहुत विस्तृत और अर्थपूर्ण प्रतीत होता है। उक्त लक्षणसे एक नवीन बातपर भी प्रकाश पड़ता है, वह यह कि प्रा. वसुनन्दि कूटतुला और होनाधिक-मानोन्मान आदिको अतीचार न मानकर अनाचार ही मानते थे। ब्रह्मचर्याणुव्रतके स्वरूपमे अनंग-क्रीडा-परिहारका प्रतिपादन भी उक्त बातकी ही पुष्टि करता है। (२) श्रा० वसुनन्दिने भोगोपभोग-परिमाणनामक एक शिक्षाव्रतके विभाग कर भोग-विरति और उपभोग-विरति नामक दो शिक्षाव्रत गिनाए हैं। जहाँ तक मेरा अध्ययन है, मैं समझता हूँ कि समस्त दिगम्बर और श्वेताम्बर साहित्यमे कहींपर भी उक्त नामके दो स्वतंत्र शिक्षाबत देखनेमें नही आये । केवल एक अपवाद है। और वह है 'श्रावक-प्रतिक्रमण सूत्र का। वसुनन्दिने ग्यारह प्रतिमाओंका स्वरूप वर्णन करनेवाली जो गाथाएँ प्रस्तुत ग्रन्थमे निबद्ध की हैं वे उक्त श्रावक-प्रतिक्रमणसूत्रमै ज्योकी त्यों पाई जाती है। जिससे पता चलता है कि उक्त गाथाओं के समान भोग-विरति और उपभोग-विरति नामक दो शिक्षाव्रतोंके प्रतिपादनमें भी उन्होने 'श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र' का अनुसरण किया है। अपने कथनके प्रामाणिकताप्रतिपादनार्थ उन्होंने "तं भोयविरइ भणियं पढमं सिक्खावयं सुत्ते" (गाथा २१७) वाक्य कहा है। यहाँ सूत्र पदसे वसुनन्दिका किस सूत्रकी ओर संकेत रहा है, यद्यपि यह अद्यावधि विचारणीय है तथापि उनके उक्त निर्देशसे उक्त दोनों शिक्षाव्रतोंका पृथक् प्रतिपादन असंदिग्ध रूपसे प्रमाणित है। (३) श्रा. वसुनन्दि द्वारा सल्लेखनाको शिक्षाबत प्रतिपादन करनेके विषयमें भी यही बात है। प्रथम प्राधार तो उनके पास श्रावक-प्रतिक्रमणसूत्रका था ही। फिर उन्हें इस विषयमे श्रा० कुन्दकुन्द और देवसेन जैसोंका समर्थन भी प्राप्त था। अतः उन्होंने सल्लेखनाको शिक्षाव्रतोंमें गिनाया। उमास्वाति, समन्तभद्र आदि अनेकों प्राचार्योंके द्वारा सल्लेखनाको मारणान्तिक कर्तव्यके रूपमे प्रतिपादन करनेपर भी वसुनन्दिके द्वारा उसे शिक्षाव्रतमें गिनाया जाना उनके तार्किक होनेकी बजाय सैद्धान्तिक होनेकी ही पुष्टि करता है। यही कारण है कि परवर्ती विद्वानोंने अपने ग्रन्थों में उन्हें उक्त पदसे संबोधित किया है। (४) श्रा० कुन्दकुन्द, स्वामी कार्तिकेय और समन्तभद्र आदिने छठी प्रतिमाका नाम 'रात्रिभुक्तित्याग' रखा है। और तदनुसार ही उस प्रतिमामे चतुर्विध रात्रिभोजनका परित्याग श्रावश्यक बताया है। श्रा० वसुनन्दिने भी ग्रन्थके प्रारम्भमे गाथा नं०४ के द्वारा इस प्रतिमाका नाम तो वही दिया है पर उसका स्वरूप-वर्णन दिवामैथुनत्याग रूपसे किया है। तब क्या यह पूर्वापर विरोध या पूर्व-परम्पराका उल्लंघन है ? इस आशंकाका समाधान हमे वसुनन्दिकी वस्तु-प्रतिपादन-शैलीसे मिल जाता है। वे कहते हैं कि रात्रिभोजन करनेवाले मनुष्यके तो पहिली प्रतिमा भी संभव नहीं है, क्योंकि रात्रिमें खानेसे अपरिमाण त्रस जीवोंकी हिंसा होती है। अतः अहन्मतानुयायीको सर्वप्रथम मन, वचन कायसे रात्रि-भुक्तिका परिहार करना चाहिये। (देखो गा० नं० ३१४-३१८) ऐसी दशाम पाँचवीं प्रतिमा तक श्रावक रात्रिमें भोजन कैसे कर सकता है ? अतएव उन्होने दिवामैथुन त्याग रूपसे छठी प्रतिमाका वर्णन किया। इस प्रकारसे वर्णन करनेपर भी वे पूर्वापर विरोध रूप दोषके भागी नहीं हैं, क्योंकि 'भुज' धातुके भोजन और सेवन ऐसे दो अर्थ संस्कृत-प्राकृत साहित्य में प्रसिद्ध हैं। समन्तभद्र श्रादि प्राचार्योंने 'भोजन' अर्थका आश्रय लेकर छठी प्रतिमाका स्वरूप कहा है और नसुनन्दिने 'सेवन' अर्थको लेकर । श्रा. वसुनन्दि तक छठी प्रतिमाका वर्णन दोनों प्रकारों से मिलता है। वसुनन्दिके पश्चात् पं० आशाधरजी आदि परवर्ती दि० और श्वे० विद्वानोंने उक्त दोनों परम्पराओंसे आनेवाले और भुज् धातुके द्वारा
SR No.010731
Book TitleVasunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1952
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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