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________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार की विशेषताएँ ३१ . हैं, तब द्वितीय प्रतिमामें उनका दुहराना निरर्थक हो जाता है। यतः द्वितीय प्रतिमाधारी पहले से ही परस्त्रीत्यागी और स्वदार-सन्तोषी है, अतः उसका यही ब्रह्मचर्य-अणुव्रत है कि वह अपनी स्त्रीका भी पर्वके दिनों में उपभोग न करे और अनंगक्रीडाका सदाके लिए परित्याग करे। इस प्रकार वसुनन्दिने पूर्व सरणिका परित्याग कर जो ब्रह्मचर्याणुव्रतका स्वरूप कहनेके लिए शैली स्वीकार की है, वह उनकी सैद्धान्तिकताके सर्वथा अनुकूल है। पं० श्राशाधरजी आदि जिन परवर्ती श्रावकाचार-रचयिताोंने समन्तभद्र, सोमदेव और वसु. नन्दिके प्रतिपादनका रहस्य न समझकर ब्रह्मचर्याणुव्रतका जिस ढंगसे प्रतिपादन किया है और जिस ढंगसे उनके अतीचारोंकी व्याख्या की है, उससे वे स्वयं स्ववचन-विरोधी बन गये हैं। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है: उत्तर प्रतिमानोंमे पूर्व प्रतिमाअोका अविकल रूपसे पूर्ण शुद्ध आचरण अत्यन्त आवश्यक है, इसीलिए समन्तभद्रको 'स्वगुणाः पूर्वगुणैः सह सतिष्ठन्ते क्रमविवृद्धा और सोमदेवको 'पूर्वपूर्वव्रतस्थिताः कहना पड़ा है। पर पं० श्राशाधरजी उक्त बातसे भली भाँति परिचित होते हुए और प्रकारान्तरसे दूसरे शब्दोंमें स्वयं उसका निरूपण करते हुए भी दो-एक स्थलपर कुछ ऐसा वस्तु-निरूपण कर गये हैं, जो पूर्वापर-क्रमविरुद्ध प्रतीत होता है। उदाहरणार्थ-सागारधर्मामृतके तीसरे अध्यायमें श्रावककी प्रथम प्रतिमाका वर्णन करते हुए वे उसे जुश्रा आदि सप्त व्यसनोका परित्याग अावश्यक बतलाते हैं। और व्यसन-त्यागीके लिए उनके अतीचारोंके परित्यागका भी उपदेश देते हैं, जिसमे वे एक ओर तो वेश्याव्यसनत्यागीको गीत, नृत्य, वादि त्रादिके देखने, सुनने और वेश्याके यहाँ जाने-बाने या संभाषण करने तकका प्रतिबन्ध लगाते हैं, तब दूसरी ओर वे ही इससे आगे चलकर चौथे अध्यायमे दूसरी प्रतिमाका वर्णन करते समय ब्रह्मचर्याणुव्रतके अतीचारोंकी व्याख्यामे भाड़ा देकर नियत कालके लिए वेश्याको भी स्वकलत्र बनाकर उसे सेवन करने तकको अतीचार बताकर प्रकारान्तरसे उसके सेवनकी छूट दे देते हैं। क्या यह पूर्व गुणके विकाशके स्थानपर उसका ह्रास नहीं है ? और इस प्रकार क्या वे स्वयं स्ववचन-विरोधी नहीं बन गये हैं ? वस्तुतः संगीत, नृत्यादिके देखने का त्याग भोगोपभोगपरिमाण व्रतमें कराया गया है। प०अाशाधरजी द्वारा इसी प्रकारकी एक और विचारणीय बात चोरी व्यसनके अतीचार कहते हुए कही गई है। प्रथम प्रतिमाधारीको तो वे अचौर्य-व्यसनकी शुचिता (पवित्रता या निर्मलता) के लिए अपने सगे भाई आदि दायादारोंके भी भूमि, ग्राम, स्वर्ण आदि दायभागको राजवर्चस् (राजाके तेज या श्रादेश) से, या अाजकी भाषामें कानूनकी बाड़ लेकर लेनेकी मनाई करते हैं। परन्तु दूसरी प्रतिमाधारीको १ देखो-रत्नकरण्डक, श्लोक १३६. २. अवधिव्रतमारोहेत्पूर्वपूर्ववतस्थिताः। सर्वत्रापि समाः प्रोक्ताः ज्ञान-दर्शनभावनाः ॥-यशस्तिक आ० 6. ३ देखो-सागारधर्मामृत अ० ३, श्लो० १७. ४ त्यजेत्तौर्यत्रिकासक्तिं वृथाव्यां विङ्गसङ्गतिम् । नित्यं पण्याङ्गनात्यागी तद्गहगमनादि च ॥ टीका-तौर्यत्रिकासक्तिं -गीतनृत्यवादित्रेषु सेवानिबन्धनम् । वृथाव्या-प्रयोजनं बिना विचरणम् । तद्न हगमनादि-वेश्यागृहगमन-संभाषण-सत्कारादि ।-सागारध० अ०३, श्लो० २०. ५ भाटिप्रदानानियतकालस्वीकारेण स्वकलत्रीकृत्य वेश्यां वेत्वरिकां सेवमानस्य स्वबुद्धिकल्पनया स्वदारत्वेन व्रतसापेक्षचित्तत्त्वादल्पकालपरिग्रहाच्च न भंगो वस्तुतोऽस्वदारत्वाच्च भंग इति xxx भंगाभंगरूपोऽतिचारः।-सागारध० अ०४ श्लो० ५८ टीका । ६ देखो-रत्नकरण्डक, श्लो० ८८. ७ दायादाज्जीवतो राजवर्चसाद् गृहतो धनम् । दायं वाऽपहृवानस्य वाचौर्यव्यसनं शुचि ॥-सागार ध० अ० ३, २१.
SR No.010731
Book TitleVasunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1952
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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