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________________ श्रावकधर्म-प्रतिपादनके प्रकार (३) श्रावक धर्मके प्रतिपादनका तीसरा प्रकार पक्ष, चर्या और साधनका निरूपण है। इस मार्गके प्रतिपादन करनेवालोंमें हम सर्वप्रथम प्राचार्य जिनसेनको पाते है। श्रा० जिनसेनने यद्यपि श्रावकाचार पर कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ नहीं रचा है, तथापि उन्होने अपनी सबसे बड़ी कृति महापुराणके ३६-४० और ४१ वें पर्व में श्रावक धर्मका वर्णन करते हुए ब्राह्मणोंकी उत्पत्ति, उनके लिए व्रत-विधान, नाना क्रियाओं और उनके मन्त्रादिकोंका खूब विस्तृत वर्णन किया है। वही पर उन्होने पक्ष, चर्या और साधनरूपसे श्रावक-धर्मका निरूपण इस प्रकारसे किया है : स्यादारेका च षटकर्मजीविनां गृहमेधिनाम् । हिंसादोषोऽनुसंगी स्याज्जैनानां च द्विजन्मनाम् ||१४३|| इत्यत्र ब्रूमहे सत्यमल्पसावद्यसंगतिः। तत्रास्त्येव तथाप्येषां स्याच्छुद्धिः शास्त्रदर्शिता ॥१४॥ अपि चैषां विशुद्धबंगं पक्षश्चर्या च साधनम् । इति त्रितयमस्त्येव तदिदानी विवृण्महे ॥१५॥ तत्र पक्षो हि जैनानां कृत्स्नहिंसाविवर्जनम् । मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थ्यैरुपवृहितम् ।।१४६॥ चर्या तु देवतार्थ वा मंत्रसिद्धयर्थमेव वा । औषधाहारक्लुप्त्यै वा न हिंस्यामीति चेष्टितम् ॥१७॥ तत्राकामकृते शुद्धिः प्रायश्चित्तैर्विधीयते । पश्चाच्चात्मान्वयं सूनी व्यवस्थाप्य गृहोज्झनम् ॥१४॥ चयैषा गृहिणां प्रोक्ता जीवितान्ते तु साधनम् । देहाहारहितत्यागाद् ध्यानशुद्धयाऽऽत्मशोधनम् ॥१४॥ त्रिष्वेतेषु न संस्पर्शो वधेनाहंद्-द्विजन्मनाम् । इत्यात्मपक्षनिक्षिप्तदोषाणां स्यान्निराकृतिः ॥१५०॥ -आदिपुराण पर्व ३९ अर्थात् यहाँ यह आशंका की गई है कि जो षट्कर्मजीवी द्विजन्मा जैनी गृहस्थ हैं, उनके भी हिंसा दोष का प्रसंग होगा? इसका उत्तर दिया गया है कि हाँ, गृहस्थ अल्प सावद्य का भागी तो होता है, पर शास्त्र मे उसकी शुद्धि भी बत्तलाई गई है। उस शुद्धि के तीन प्रकार हैं:-पक्ष, चर्या और साधन । इनका अर्थ इस प्रकार है-समस्त हिंसा का त्याग करना ही जैनों का पक्ष है। उनका यह पक्ष मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ्यरूप चार भावनाओं से वृद्धिंगत रहता है। देवता की आराधना के लिए, या मंत्र की सिद्धि के लिए, औषधि या आहार के लिए मैं कभी किसी भी प्राणी को नहीं मारूँगा, ऐसी प्रतिज्ञा को चर्या कहते हैं। इस प्रतिज्ञा में यदि कभी कोई दोष लग जाय, तो प्रायश्चित्त के द्वारा उसकी शुद्धि बताई गई है। पश्चात् अपने सब कुटुम्ब और गृहस्थाश्रम का भार पुत्रपर डालकर घर का त्याग कर देना चाहिए। यह गृहस्थों की चर्या कही गई है। अब साधनको कहते है-जीवनके अन्तमें अर्थात् मरणके समय शरीर, आहार और सर्व इच्छाओंका परित्याग करके ध्यानको शुद्धि द्वारा श्रात्माके शुद्ध करनेको साधन कहते हैं। अहंद्देवके अनुयायी द्विजन्मा जैनोको इन पक्ष, चर्या और साधनका साधन करते हुए हिसादि पापोंका स्पर्श भी नहीं होता है और इस प्रकार ऊपर जो आशंका की गई थी, उसका परिहार हो जाता है। उपर्युक विवेचनका निष्कर्ष यह है कि जिसे अहंदेवका पक्ष हो, जो जिनेन्द्र के सिवाय किसी अन्य देवको, निर्ग्रन्थ गुरुके अतिरिक्त किसी अन्य गुरुको और जैनधर्मके सिवाय किसी अन्य धर्मको न माने, जैनत्वका ऐसा दृढ पक्ष रखनेवाले व्यक्तिको पाक्षिक श्रावक कहते हैं। इसका आत्मा मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और
SR No.010731
Book TitleVasunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1952
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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