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________________ प्राकृत-शब्द-संग्रह २१५ [सप्त सत्त (सत्व सात बल, जीव तिथि विशेष १७४ ३४८ २८१ सप्तमी ३६६ सत्तमि । सत्तमी सत्तरस सत्ति सप्तदश सत्तरह (आयुध विशेष १७४ १४१ शक्ति (सामर्थ्य १२० सत्त २७६ सत्थ सदद सद्द ग्रन्थ निरन्तर अक्षर, आलाप दृढ-प्रतीति ११४ ४१३ . शास्त्र सतत शब्द श्राद्धान श्रद्दधत् श्रद्दधन्त शब्दाकुल श्रद्धा सघन समग्र समचतुरस्त्र समचतुरस्त्र संस्थान समर्जित समप्रभ समभिभूत समय समवसरण सम्यक सम्यक्त्व सम्यग्दृष्टि समासतः समाधि सन्मान समुद्धात समुद्र समुद्दिष्ट समुत्पत्ति समुपविष्ट सप्रदेश सद्दहण सद्दहमाण सहहंत सद्दाउल सद्धा सधण समग्ग समचउरस्स समचउरस्ससंठाण समज्जिय समप्पह समभिभूत्र समय समवसरण सम्म सम्मत्त सम्मदिट्ठी समासो समाहि सम्माण समुग्धाय समुह समुद्दिट्ठ समुष्पत्ति समुवइट्ठ सपएस सप्प सप्पि सम्भाव समारण सय २६२ ३४६ २५६ १६१ श्रद्धान करता हुआ शब्दसे व्याप्त विश्वास धन-यक्त सम्पूर्ण सुन्दर संस्थान आकार प्रथम संस्थानका नाम उपाजित समान प्रभावाले अत्यन्त पराभूत परमागम, क्षण तीर्थकरोकी सभाविशेष सम्यक्त्व सम्यग्दर्शन सम्यक्त्वी संक्षेपसे ध्यानावस्था प्रतिष्ठा आत्मप्रदेशो का शरीरसे बाहिर निकलना सागर कहा हुआ पैदायश बैठा हुआ प्रदेशयुक्त 2019 muro ro ११८ UMx mrox" सर्प साँप घी सर्पि सन्द्राव समान शत तदाकार, भद्रता तुल्य
SR No.010731
Book TitleVasunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1952
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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