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________________ १८८ जल्लोसहि जल्लोषधि ३४६ १०५ ३४४ जस जसकित्ती जसस्सी जह जहराण जहाजोग्ग यश यश कीर्ति यशस्वी यथा जघन्य यथायोग्य यथोक्त ५२८ २४८ ३७१ जाइ जाति १०१ १८६ ३६३ १६४ ४२१ ४३२ १० जादव जायणा जायंत जावउ जावज्जीव जावारय जासवण जिण जिणक्खाद जिणचेइय जिणण्हवण जिणयत्त जिणवरिंद जिणसासण जिणालय जिणिंद जिब्भा जिमिंदिय वसुनन्दि-श्रावकाचार शरीरके मलसे रोग दूर करनेवाली ऋद्धि विशेष ख्याति प्रसिद्धि यशवान् जैसे, जिस प्रकार निकृष्ट यथोचित कहे अनुसार जन्म, कुल, गोत्र यदुवशी पीड़ा उत्पन्न होता हुआ जब तक जीवन पर्यन्त जबारे जौके हरित अकुर जपावृक्षका फूल जिनेन्द्र जिनेन्द्रके द्वारा कहा हुआ जिनमुत्ति जिनाभिषेक पंचम अगमें प्रसिद्ध पुरुष जिनोमे श्रेष्ठ जैनमत जिन-मन्दिर जिनराज जीभ रसना-इन्द्रिय प्राणी जीभ जीता हुआ एक साथ पुराना संयुक्त संग्राम, लड़ाई सहित, जोड़ा जोड़ा जुआ जवानी ज्येष्ठ पांडव यादव यातना जायमान यावत् यौवजीव यवांकुर, जपाकुसुम जिन 'जिनाख्यात जिनचैत्य जिनस्नपन जिनदत्त जिनवरेन्द्र जिनशासन जिनालय जिनेन्द्र जिह्वा जिह्वन्द्रिय जीव जिह्वा ३७३ ४५३ ४० GW120 जी ४७९ जीवन् जीह +जीवंत गजुगव जुण्ण ५२६ युगपत् जीर्ण युत ३ जुद्ध युद्ध युत, युग १७० ४६५ युगल २६२ चूत ६५ जुयल जुव्व जुव्वण जुहिट्टर ४६६ यौवन युधिष्ठर 0 जूय जुआ जूयंध द्यूतान्ध जुआसे अंधा
SR No.010731
Book TitleVasunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1952
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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