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________________ प्राकृत-धातुरूप-संग्रह आ० ल. व० ल० ८८, १७८ १६६ २४१ कृ०प्र० भू० कृ० आ० ल० क०व० ल. २४१ ४६० ५०६ प्र (देखो नं० १६) वद्ध (वड्ड) २०१-वय = व्यय (व्यय होना) वयंति वसइ २०२-वस = वस् (वसना) वसियव्य २०३-वप = वप् (बोना) वावियं २०४-विजाण = वि+ज्ञा (जानना) विजाणह २०५-विज = वीजय (पंखा चलाना) विजज्जइ २०६-विणि = वि+ नी (बिताना, विणेऊण दूर करना) २०७-विएणय = वि+ज्ञा (जानना) [ विरणेओ ।।विण्णेया २०८-वितर = वि+तृ (अर्पण करना) वितीरिज्जा २०६-वित्थर = वि+स्तु (फैलना) वित्थारियन्वं वित्थारिऊण २१०–वित्थार % वि+स्तारय् २ विस्थारिज्जइ फैलाना ( वित्थारिज्जो २११-विद्धंस = विध्वंस (विनष्ट विधंसेइ करना) २१२-विभग्ग =वि+मार्गय (अन्वे- विमग्गित्ता षण करना) २१३-वियप = वि+कल्पय, वियप्पिऊण (विचार करना) वियप्पिय वि० ल० कृ० प्र० स० कृ० क० व. ल. वि० कृ० व० ल० ३७१, ३८२, ४५५ ४८५ ५४७ ३५७ १०७ ४३५ ७६ सं० कृ०. सं० कृ० २२६ ४६० ४०४ २२६, ३०० इत्यादि वियाण " " आ० ल० ३४५ २३४ वि० ल. ब० ल. १३८ ००० ७१ १२० (देखो नं० २०३) वियाणसु वियाग्रह वियाणीहि २१४-विलिज = वि + ला (नष्ट होना) विलिज्ज २१५-विलिह = वि+ लिह (चाटना) विलिहंति विलवमाणो २१६-विलव = वि+ लपू विलवमाणं (विलाप करना) ( विलवंतो विवज्जा विवज्जए २१७-विवज = वि+ वर्जय विवज्जियवा (छोड़ना) विवज्जे (विवज्जंतो २१८-विस = विश् (प्रवेश करना) विसइ . १६३ AAA १५०, १५४ २६७ वि. ल. २६४, २६६ कृ० ब० ल. व० कृ० व० ल० आ० ल० व० ल० ५७, २६८ २१४, २९७ १५६, १६१ १४४ विसह १८० २१९ -विसह = वि+ सह विसहह (सहन करना) विसहदे विसहतो २२०–विसुज्झ - वि+शुध् (शुद्ध होना) विसुद्धमारणो २२१-विसूर = खिद् (खेद करना) विसूरइ १९४ ५२० १९२ व० ल०
SR No.010731
Book TitleVasunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1952
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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