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________________ १ विशेष-टिप्पण गाथा नं० १५–विशेषार्थ-विवक्षित गतिमें कर्मोदयसे प्राप्त शरीरमें रोकनेवाले और जीवनके कारणभूत आधारको आयु कहते है। भिन्न-भिन्न शरीरोंकी उत्पत्तिके कारणभूत नोकर्मवर्गणाके भेदोंको कुल कहते हैं। कन्द, मूल, अण्डा, गर्भ, रस, स्वेद आदिकी उत्पत्तिके अाधारको योनि कहते है। जिन स्थानोंके द्वारा अनेक अवस्थाश्रोमे स्थित जीवोंका ज्ञान हो, उन्हें मार्गणास्थान कहते हैं। मोह और योगके निमित्त से होनेवाली आत्माके सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्रादि गुणोंकी तारतम्यरूप विकसित अवस्थाओंको गुणस्थान कहते हैं। जिन सदृश धर्मों के द्वारा अनेक जीवोका संग्रह किया जाय, उन्हें जीव-समास कहते हैं। बाह्य तथा श्राभ्यन्तर कारणों के द्वारा होनेवाली अात्माके चेतनगुण की परिणतिको उपयोग कहते हैं। जीवमें जिनके संयोग रहनेपर 'यह जीता है और वियोग होनेपर 'यह मर गया' ऐसा व्यवहार हो, उन्हे प्राण कहते है। श्राहारादिकी वांछाको संज्ञा कहते हैं। . गाथा नं. ४६-विशेषार्थ-वस्तुके स्वरूप या नाममात्रके कथन करनेको निर्देश कहते हैं। वस्तुके आधिपत्यको स्वामित्व करते हैं। वस्तु की उत्पत्ति के निमित्तको साधन कहते हैं। वस्तुके अधिष्ठान या आधारको अधिकरण कहते हैं । वस्तुकी कालमर्यादाको स्थिति कहते हैं और वस्तुके प्रकार या भेदोंको विधान कहते है। परमागममे इन छह अनुयोग-द्वारोंसे वस्तु-स्वरूपके जाननेका विधान किया गया है। गाथा नं० २६५-आयंबिल या आचाम्लवत-अष्टमी श्रादि पर्वके दिन जब निर्जल उपवास करनेकी शक्ति नहीं हो, तब इसे करनेको जघन्य उपवास कहा गया है। पर्वके दिन एक बार रूक्ष एवं नीरस श्राहारके ग्रहण करनेको आयंबिल कहते हैं। इसके संस्कृतमे अनेक रूप देखनेमे पाते हैं, यथाअायामाम्ल, श्राचामाम्ल और आचम्ल । इनमेसे प्रारम्भके दो रूप तो श्वे० ग्रन्थों में ही देखनेमे आते है और तीसरा रूप दि० और श्वेताम्बर दोनो ही साम्प्रदायके ग्रन्थोंमें प्रयुक्त किया गया है। उक्त तीनोंकी निरुक्तियां विभिन्न प्रकारसे की गई हैं और तदनुसार अर्थ भी भिन्न रूपसे किये गये है। पर उन सबका अभिप्राय एक है और वह यह कि छह रसोमे अाम्लनामका चौथा रस है, इस व्रतमें उसे खानेका विधान किया गया है। इस व्रतमें नीबू इमली श्रादिके रसके साथ केवल पानीके भीतर पकाया गया अन्न घूघरी या रूखी रोटी श्रादि भी खाई जा सकती है। पानी में उबले चावलोंको इमली आदिके रसके साथ खानेको भी कुछ लोगोंने श्राचाम्ल कहा है । इस व्रतके भी तीन भेद किये गये हैं। विशेषके लिए इस नं०की गाथा पर दी गई टिप्पणीको देखो। णिव्वियडी या निर्विकृति व्रत इस व्रतमें विकार उत्पन्न करनेवाले भोजनका परित्याग किया जाता है। दूध, घी, दही, तेल, गुद श्रादि रसोंको शास्त्रोंमें विकृति संज्ञा दी गई है, क्योंकि वे सब इन्द्रिय-विकारोत्पादक हैं। अतएव उक्त रसोंका या उनके द्वारा पके हुए पदार्थोंका परित्याग कर बिलकुल सात्त्विक एवं रूक्ष भोजन करनेको निर्विकृतिव्रत कहा गया है। इसे करनेवालेको नमक तकके भी खानेका त्याग करना आवश्यक माना गया है। कुछ प्राचार्योको व्याख्यानुसार रसादिके संपर्कसे सर्वथा अलिप्त रूक्ष एक अन्नके ही खानेका विधान इस व्रतमें किया गया है।
SR No.010731
Book TitleVasunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1952
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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