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________________ १४० वसुनन्दि-श्रावकाचार णाणंतरायदसयं दसण चत्तारि चरिमसमयम्मि । हणिऊण तक्खणे चिय सजोगिकेवलिजिणो होइ ॥५२५।। तभी सूक्ष्मलोभका वेदन करनेवाला वह सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानवर्ती सूक्ष्मसाम्पराय संयत होता है। तत्पश्चात् सूक्ष्म लोभका भी क्षय करके वह क्षीणकषाय नामक बारहवे गुणस्थानमें जाकर क्षीणकषाय वीतराग छद्मस्थ होता है। वहांपर ही द्वितीय शुक्लध्यानको प्राप्त करके उसके द्वारा बारहवें गुणस्थानके द्विचरम समयमे निद्रा और प्रचला, इन दो प्रकृतियों को नष्ट करता है। चरम समयमें ज्ञानावरण कर्मकी पाँच, अन्तरायकर्मकी पाँच और दर्शनावरणकी चक्षुदर्शन आदि चार इन चौदह प्रकृतियोंका क्षय करके वह तत्क्षण ही सयोगि-केवली जिन हो जाता है ॥५२३-५२५॥ तो सो तियालगोयर-अणंतगुणपज्जयप्पयं वत्थु । जाणइ पस्सइ जुगवं णवकेवललद्धिसंपएणो ॥५२६।। दाणे लाहे भोए परिभोए वीरिए सम्मत्ते। णवकेवललद्धीश्रो देसण णाणे चरित्ते य ॥५२७॥ तब वह नव केवललब्धियोंसे सम्पन्न होकर त्रिकाल-गोचर अनन्त गुण-पर्यायात्मक वस्तुको युगपत् जानता और देखता है । क्षायिकदान, क्षायिक लाभ, क्षायिक भोग, क्षायिक परिभोग, क्षायिक वीर्य, क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायिक दर्शन (केवल दर्शन), क्षायिक ज्ञान, (केवल ज्ञान), और क्षायिक चारित्र (यथाख्यात चारित्र), ये नव केवललब्धियां है ॥५२६५२७॥ उक्कस्सं च जहएणं पजाय विहरिऊण सिझेह । सो अकयसमुग्धामो जस्साउसमाणि कम्माणि ॥५२८।। जस्स ण हु आउसरिसाणि णामागोयाणि वेयणीयं च । सो कुणइ समुग्घायं णियमेण जियो ण संदेहो ॥५२९॥ वे सयोगि केवली भगवान् उत्कृष्ट और जघन्य पर्याय-प्रमाण विहार करके, अर्थात् तेरहवें गुणस्थानका उत्कृष्ट काल-आठ वर्ष और अन्तर्मुहर्तकम पूर्वकोटी वर्षप्रमाण है और जघन्यकाल अन्तर्मुहुर्त प्रमाण है, सो जिस केवलीकी जितनी आयु है, तत्प्रमाण काल तक नाना देशोंमे विहार कर और धर्मोपदेश देकर सिद्ध होते हैं। (इनमे कितने ही सयोगिकेवली समुद्धात करते है और कितने ही नही करते हैं।) सो जिस केवलीके आयु कर्मकी स्थितिके बराबर शेष नाम, गोत्र और वेदनीय कर्मकी स्थिति होती है, वे तो समुद्धात किये विना ही सिद्ध होते हैं। किन्तु जिनके नाम, गोत्र और वेदनीय कर्म आयु के बराबर नही हैं, वे सयोगिकेवली जिन नियमसे समुद्धात करते हैं, इसमें कोई सन्देह नहीं है ॥५२८-५२९॥ छम्मासाउगसेसे उप्पण्णं जस्स केवलं होज्ज'। सो कुणइ समुग्धायं इयरो पुण होइ भयणिज्जो ॥५३०॥ छह मासकी आयु अवशेष रहनेपर जिसके केवल ज्ञान उत्पन्न होता है, वे केवली समुद्धात करते हैं, इतर केवली भजनीय हैं, अर्थात् समुद्धात करते भी हैं और नहीं भी करते हैं ॥५३०॥ । अंतोमहत्तसेसाउगम्मि दर्द कवाड पयर च। जगपूरणमथ पयरं कवाड दंड गियतणुपमाणं च ॥५३१॥ एवं पएसपसरण-संवरणं कुणइ असमएहिं। होहिंति जोइचरिमे अघाइकम्माणि सरिसाणि ॥५३२॥ इ.म. गाणं ।
SR No.010731
Book TitleVasunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1952
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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