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________________ धसुनन्दि-श्रावकाचार श्रासाद कात्तिए फग्गुणे य णंदीसरढदिवसेसु । विविहं करेइ महिमं णंदीसरचेइय'गिहेसु ॥५०७॥ पंचसु मेरुसु तहा विमाणजिणचेइएसु विविहेसु । पंचसु कालाणेसु य करेइ पुज्ज बहुवियप्पं ॥५०८॥ इच्चाइबहुविणोएहि तत्थ विणेऊण सगढिई तत्तो। उज्वट्टिो समाणो चक्कहराईसु जाएइ ॥५०९॥ वह देव आषाढ, कात्तिक और फाल्गुन मासमे नन्दीश्वर पर्वके आठ दिनोंमे, नन्दीश्वर द्वीपके जिन चैत्यालयोंमें जाकर अनेक प्रकारकी पूजा महिमा करता है। इसी प्रकार पांचों मेरुपर्वतोपर, विमानोंके जिन चैत्यालयोंमें, और अनेकों पंच कल्याणकोंमे नाना प्रकारकी पूजा करता है। इस प्रकार इन पुण्य-वर्धक और आनन्दकारक नाना विनोदोके द्वारा स्वर्गमें अपनी स्थितिको पूरी करके वहाँसे च्युत होता हुआ वह देव मनुष्यलोकमे चक्रवर्ती आदिकोमें उत्पन्न होता है ॥५०७-५०९॥ भोत्तण मणुयसोक्खं पस्सिय वेरग्गकारणं किं चि । मोत्तण रायलच्छी तणं व गहिऊण चारित्तं ॥५१०॥ काऊण तवं घोरं लद्धीओ तप्फलेण लण । अढगुणे सरियत्तं च किं ण सिझइ तवेण जए ॥५११॥ मनुष्य लोकसें मनुष्योंके सुखको भोगकर और कुछ वैराग्यका कारण देखकर, राज्य-. लक्ष्मीको तृणके समान छोड़कर, चारित्रको ग्रहण कर, घोर तपको करके और तपके फलसे विक्रियादि लब्धियोंको प्राप्त कर अणिमादि आठ गुणोंके ऐश्वर्यको प्राप्त होता है । जगमें तपसे क्या नही सिद्ध होता ? सभी कुछ सिद्ध होता है ॥५१०-५११॥ बुद्धि तवो वि य लद्धी विउवणलद्धी तहेव श्रोसहिया । रस-बल-अक्खीणा वि य रिद्धीनो सत्त पण्णत्ता ॥५१२॥ अणिमा महिमा लघिमा पागम्म वसित्त कामरूवित्तं । ईसत्त पावणं तह अद्वगुणा वएिणया समए ॥५१३॥ बुद्धिऋद्धि, तपऋद्धि, विक्रियाऋद्धि, औषधऋद्धि, रसऋद्धि, बलऋद्धि और अक्षीण महानस ऋद्धि, इस प्रकार ये सात ऋद्धियाँ कही गई है ॥५१२॥ अणिमा, महिमा, लघिमा, प्राकाम्य, वशित्व, कामरूपित्व, ईशत्व, और प्राप्यत्व, ये आठ गुण परमागममें कहे गये हैं ॥५१३॥ एवं काऊण तवं पासुयठाणम्मि तह य गंतूण । पलियंक बंधित्ता काउस्सग्गेण वा ठिच्चा ॥५१४॥ जइ खाइयसद्दिट्ठी पुन्वं खवियाउ सत्त पयडीयो। सुर-णिरय-तिरिक्खाऊ तम्हि भवे णिठियं चेव ॥५१५॥ अह वेदगसहिट्ठी पमत्तठाणम्मि अप्पमत्ते वा। सिरिऊण धम्ममाणं सत्त वि पिट्ठवह पयढीश्री ॥१६॥ काऊण पमत्तेयरपरियत्त सयाणि खवयपाउग्गो। होऊण अप्पमत्तो विसोहिमाऊरिऊण खणं ॥१७॥ करणं अधापवत्तं पढम पडिवजिऊण सुकं च। जायइ अपुन्वकरणो कसायखवणुज्जो वीरो ॥५१॥ . प. घरेसु । २. ध. प. गुणी। ३ म. सन्मुं। ध. प. सझ ( साध्यमित्यर्थः) १.प. परियत। ५इ.ध. जियो।
SR No.010731
Book TitleVasunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1952
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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