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________________ १४ वसुनन्दि-श्रावकाचार ५४६ है। इस प्रतिम भी मुद्रित प्रतिवाली उपर्युक्त ५३८और ५३६ न की गाथाएँ नहीं पाई जाती हैं। इस प्रतिमे यत्र-तत्र अर्थबोधक टिप्पणियाँ भी पंक्तियों के ऊपर या हाशिये मे दी गई हैं जो कि शुद्ध संस्कृतमे है। इस प्रतिमे कहीं-कहीं अन्य ग्रन्थोकी समानार्थक और अर्थबोधक गाथाएँ और श्लोक भी हाशियेमें विभिन्न कलमोसे लिखे हुए है। उदाहरणार्थ-ब्रह्मचर्य प्रतिमा स्वरूप-प्रतिपादक गाथापर निशान देकर "सव्वेसिं इत्थीणं" इत्यादि 'स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा' की गाथा न० ३८४ दी है। इसीके साथ "लिंगम्मि य इत्थीण" इत्यादि सूत्रपाहुड की २४वीं गाथा और “मलबीजं मलयोनि" इत्यादि रत्नकरण्डकका १४३वां श्लोक दिया है। गाथा नं० ५३१-३२ पर समुद्धातका स्वरूप और सख्यावाली गो० जी० की ६६६-६७वीं गाथाएँ भी उद्धत हैं । इनके अतिरिक्त गाथा न० ५२९ पर टिप्पणी रूपसे गुणस्थानो की कालमर्यादा-सूचक दो गाथाएँ और भी लिखी है । जो कि किसी अज्ञात ग्रन्थकी हैं, क्योंकि दि० सम्प्रदायके ज्ञातप्राय ग्रन्थोकी जो प्राकृत पद्यानुक्रमणी हाल हीमे वीर सेवा मन्दिर सरसावासे प्रकाशित हुई है, उसमे कहीं भी उनका पता नहीं लगता। वे दोनों गाथाएँ इस प्रकार है छावलियं सासाणं समये तेत्तीस सायरं चउत्थे । देसूण पुवकोडी पंचम तेरस संपन्नो ॥ १॥ . लघु पंचक्खर चरमे तय छुट्टा य वारसं जम्मि । ए अढ गुणहाणा अंतमुहुत्त मुणेयव्वा ॥२॥ इन दोनों गाथाओंमें प्रथम को छोड़कर शेष तैरह गुणस्थानों का उत्कृष्ट काल बताया गया है, वह यह कि-दूसरे गुणस्थानका छह श्रावली, चौथेका साधिक तेतीस सागर, पाँचवें और तेरहवेंका देशोन पूर्वकोटि, चौदहवेंका लघुपंचाक्षर, तीसरे और छठेसे लेकर बारहवें तकके आठ गुणस्थानोका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इन दोनों गाथाओंमे पहले गुणस्थानका काल नहीं बताया गया है, जो कि अभव्य जीवको अपेक्षा अनादि-अनंत, अनादि मिथ्यादृष्टि भव्यकी अपेक्षा अनादि-सान्त और सादि मिथ्यादृष्टिकी अपेक्षा सादि सान्त अर्थात् देशोन अर्धपुदगल परिवर्तन है। इन टिप्पणियोंसे टिप्पणीकारके पाडित्यका सहज ही अनुमान किया जा सकता है। एक स्थलपर शीलके १८००० भेद भी गिनाये गये हैं। प्रतिकी अत्यन्त जीर्णावस्था होनेपर भी भंडारके संरक्षकोंने कागज चिपका चिपका करके उसे हाथमे लेने योग्य बना दिया है। इस प्रतिपर भी न लेखन-काल है और न लेखकनाम ही। पर प्रति की लिखावट, स्याही और कागज आदिकी स्थितिको देखते हुए यह ४०० वर्षसे कमकी लिखी हुई नहीं होगी, ऐसा मेरा अनुमान है। बाबू पन्नालालजी अग्रवालके पास जो इस भंडारकी सूची है, उसपर लेखन-काल वि० सं० १६६२ दिया हुआ है। संभवतः वह दूसरी रही हो, पर मुझे नहीं मिली। ब-यह प्रति ऐलक पन्नालाल दि० जैन सरस्वतीभवन ब्यावर की है। इसका प्राकार ४४१० इंच है। पत्र-संख्या ४१ है। प्रत्येक पत्र में पंक्ति-संख्या है और प्रत्येक पंक्तिमें अक्षर-संख्या ३२से ३६ है । कागज साधारण मोटा, पुष्ट और पीलेसे रंगका है। यह प्रति वि० सं० १६५४ के ज्येष्ठ सुदी तीज सोमवारको अजमेर में लिखी गई है। यह प्रति आदर्श प्रतियोंमे सबसे अधिक प्राचीन और अत्यन्त शुद्ध है। इसीको आधार बनाकर प्रेस कापी की गई है। म प्रतिके समान इस प्रतिमे भी "तिरिएहिं खजमाणो" और "अण्णोरणं खजंता" इत्यादि गाथाएँ पाई जाती हैं। इसके अन्तमें एक प्रशस्ति भी दी हुई है, जो यहॉपर ज्योंकी त्यों उद्धत की जाती है। जिसके द्वारा पाठकोंको अनेक नवीन बातोंका परिचय प्राप्त होगा। पूरी प्रशस्ति इस प्रकार है प्रशस्ति:-शुभं भवतु | सं० १६५४ वर्षे आषाढमासे कृष्णपक्षे एकादश्यां तिथौ ११ भौमवासरे अजमेरगढ़मध्ये श्रीमूलसिंघे ( संघे) नन्द्याम्नाये बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे श्रीकुन्दकुन्दाचार्यान्वये भट्टारकश्रीपद्मनन्दिदेवाः, तत्० भ० श्रीशुभचन्द्रदेवाः, त० भ० श्री जिनचन्द्रदेवाः, त० भ. श्रीप्रभाचन्द्रदेवाः, त० भ० श्रीचन्द्रकीर्तिदेवाः, तत्पट्टे मण्डलाचार्य श्रीभुवनकीर्ति तत्पट्टे मण्डलाचार्य श्रीधर्मकीर्ति त० मं०
SR No.010731
Book TitleVasunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1952
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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