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________________ पूजनफल-वर्णन 'कुत्थंभरिदलभेत्ते जिणभवणे जो ठवेइ जिणपडिमं । सरिसवमेत्तं पि लहेइ सो णरो तित्थयरपुण्णं ॥४८॥ जो पुण जिणिंदभवणं समुण्णयं परिहि-तोरणसमग्गं । णिम्मावइ तस्स फलं को सक्कइ वरिणउं सयलं ॥४२॥(1) जो मनुष्य कुंथुम्भरी (धनिया) के दलमात्र अर्थात् पत्र बराबर जिनभवन बनवाकर उसमें सरसोंके बराबर भी जिनप्रतिमाको स्थापन करता है, वह तीर्थ कर पद पानेके योग्य पुण्यको प्राप्त करता है, तब जो कोई अति उन्नत और परिधि, तोरण आदिसे संयुक्त जिनेन्द्रभवन बनवाता है, उसका समस्त फल वर्णन करनेके लिए कौन समर्थ हो सकता है ॥४८१४८२॥ जलधाराणिक्खेवेण पाबमलसोहणं हवे णियमं । चंदणलेवेण णरो जावइ सोहग्गसंपण्णो ॥४८॥ पूजनके समय नियमसे जिन भगवान्के आगे जलधाराके छोड़नेसे पापरूपी मैलका संशोधन होता है। चन्दनरसके लेपसे मनुष्य सौभाग्यसे सम्पन्न होता है ॥४८३॥ जायइ अक्खयणिहि-रयणसामिश्रो अक्खएहि अक्खौहो। अक्खीणलद्धिजुत्तो अक्खयसोक्खं च पावेइ ॥१८॥ अक्षतोंसे पूजा करनेवाला मनुष्य अक्षय नौ निधि और चौदह रत्नोंका स्वामी चक्रवर्ती होता है, सदा अक्षोभ अर्थात् रोग-शोक-रहित निर्भय रहता है, अक्षीण लब्धिसे सम्पन्न होता है और अन्तमें अक्षय मोक्ष-सुखको पाता है ॥४८४॥ . कुसुमेहिं कुसेसयवयणु तरुणीजणणयण-कुसमवरमाला वलएणञ्चियदेहो जयइ कुसमाउहो चेव ॥४८५।। पुष्पोंसे पूजा करनेवाला मनुष्य कमलके समान सुन्दर मुखवाला, तरुणीजनोंके नयनों- . से और पुष्पोंकी उत्तम मालाओंके समूहसे समर्चित देहवाला कामदेव होता है ॥४८५॥ जायइ णिविज्जदाणेण सत्तिगो कंति-तेय संपण्णो। लावण्णजलहिवेलातरंगसंपावियसरीरो॥८६॥ नैवेद्यके चढ़ानेसे मनुष्य शक्तिमान्, कान्ति और तेजसे सम्पन्न, और सौन्दर्यरूपी समुद्रकी वेला (तट) वर्ती तरंगोंसे संप्लावित शरीरवाला अर्थात् अतिसुन्दर होता है ॥४८६॥ दीवहिं दीवियासेसजीवदन्वाइतञ्चसम्भावो। सम्भावणियकेवलपईवतेएण होइ णरो ॥४८॥ दीपोंसे पूजा करनेवाला मनुष्य, सद्भावोंके योगसे उत्पन्न हुए केवलज्ञानरूपी प्रदीपके तेजसे समस्त जीवद्रव्यादि तत्त्वोंके रहस्यको प्रकाशित करनेवाला अर्थात् केवलज्ञानी होता है ॥४८७॥ धूवेण सिसिरयरधवलकित्तिधवलियजयतो पुरिसो। जायह फल्लेहि संपत्तपरमणिव्वाणसोक्खफलो ॥४८॥ ध, कुस्तुंबरी दलय । प. कुस्तंभरिदलभेत्ते अर्धक,बरिफलमात्रे। २ धणियादलमात्रे। ३. णिवेज। () कुंस्तुवरखण्डमानं यो निर्माप्य जिनालयम् । स्थापयेत्प्रतिमां स स्यात् त्रैलोक्यस्तुतिगोचरः ॥२१५॥ यस्तु निर्मापयेत्तुङ्ग जिनं चैत्यं मनोहरम् । वक्तुं तस्य फलं शक्तः कथं सर्वविदोऽखिलम् ॥२४६॥-गुण० श्राव.
SR No.010731
Book TitleVasunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1952
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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