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________________ रूपस्थध्यान-वर्णन रयणत्तय-तव-पडिमा-वरणा णिविसिऊण सेसपत्तेसु । सिर-वयण-कंठ-हियए णाहिपएसम्मि मायब्वा ।।४६८॥ . अहवा णिलाडदेसे पढमं बीयं विसुद्धदेसम्मि। दाहिणदिसाइ णिविसिऊण सेसकमलाणि भाएज्जो ॥४६९॥(१) पुनः अष्टदलवाले कमलके मध्यदेशमे दिशासम्बन्धी चार पत्रोंपर उन्ही वर्णोको स्थापित करके, अथवा पंच परमेष्ठीके वाचक अन्य अक्षरोको स्थापित करके तथा विदिशा सम्बन्धी शेष चार पत्रोंपर रत्नत्रय और तपवाचक पदोके प्रथम वर्णोको अर्थात् दर्शनका द, ज्ञानका ज्ञा , चारित्रका चा और तपका त इन अक्षरोंको क्रमशः स्थापित करके इस प्रकार के अष्ट दलवाले कमलका शिर, मुख, कंठ, हृदय और नाभिप्रदेश, इन पांच स्थानोंमे ध्यान करना चाहिए। अथवा प्रथम कमलको ललाट देशमे, द्वितीय कमलको विशुद्ध देश अर्थात् मस्तकपर, और शेष कमलोंको दक्षिण आदि दिशाओं में स्थापित करके उनका ध्यान करना चाहिए ॥४६७-४६९॥ अट्ठदलकमलमज्झे झाएज णहं दुरेहबिंदुजुयं। . सिरिपंचणमोक्कारेहिं वलइयं पत्तरेहासु ॥४७०॥ णिसिऊण णमो अरहताण पत्ताइमठ्ठवग्गेहिं । भणिऊण वेढिऊण य मायाबीएण तं तिउणं ॥४७१॥(२) अष्ट दलवाले कमलके भीतर कर्णिकामे दो रेफ और बिन्दुसे युक्त हकारके अर्थात 'ह' पदको स्थापन करके कर्णिकाके बाहर पत्ररेखाओंपर पंच णमोकार पदोंके द्वारा वलय बनाकर उनमें क्रमशः 'णमो अरहंताणं' आदि पाँचों पदोंको स्थापित करके और आठों पत्रोंको आठ वर्णोके द्वारा चित्रित करके पुनः उसे मायाबीजके द्वारा तीन बार वेष्टित करके उसका ध्यान करे ॥४७०-४७१॥ प्रायास-फलिहसंणिह-तणुप्पहासलिलणिहिणिब्बुडतं । णर-सुरतिरीडमणिकिरणसमूहरंजियपयंबुरुहो ॥४७२॥ वरअट्ठपाडिहरेहिं परिउट्ठो समवसरणमझगयो । परमप्पाणंतचउट्ठयरिणो पवणमग्गट्ठो ॥४७॥(३) १ ब. रेहेसु । (१) तच्चाष्टपत्रपद्मानां तदेवाक्षरपंचकम् । पूर्ववन्न्यस्य हरज्ञानचारित्रतपसामपि ॥२३५॥ विदिचवाद्यक्षरं न्यस्य ध्यायेन्मूनि गले हृदि । नाभौ वक्त्रेऽथवा पूर्व ललाटे मूर्धिन वापरमू ॥२३६।। चत्वारि यानि पद्मानि दक्षिणादिदिशास्वपि । विन्यस्य चिन्तयेन्नित्यं पापनाशनहेतवः ॥२३७॥ (२) मध्येऽष्टपत्रपद्मस्य खं द्विरेफ सबिन्दुकम् । स्वरपंचपदावेष्टयं विन्यस्यास्य दलेषु तु ॥२३॥ भृत्वा वर्गाष्टकं पत्रं प्रान्ते न्यस्यादिमं पदम् । मायाबीजेन संवेष्टयं ध्येयमेतत्सुशर्मदम् ॥२३॥ आकाशस्फटिकाभासः प्रातिहार्याष्टकान्वितः। सर्वामरैः ससंसेव्योऽप्यनन्तगुणलक्षितः ॥२४॥ नभोमार्गेऽथवोक्तेन वर्जितः क्षीरनोरधीः। मध्ये शशांकसंकाशनोरे जातस्थितो जिनः ॥२४१॥-गुण. श्रा० १८
SR No.010731
Book TitleVasunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1952
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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