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________________ उहिष्टत्याग-प्रतिमा स्वजनोंसे और परजनोंसे पूछा गया, अथवा नही पूछा गया जो श्रावक अपने गृहसम्बन्धी कार्यमे अनुमोदना नही करता है, उसे अनुमतित्याग प्रतिमाधारी दसवां श्रावक जानना चाहिए ॥ ३०० ॥ उद्दिष्टत्यागप्रतिमा एयारसम्मि ठाणे उक्किटो सावनो हवे दुविहो । वस्थेवधरो पढमो कोवीणपरिग्गहो विदियो ॥३०१॥(१) ग्यारहवे प्रतिमास्थान में गया हआ मनष्य उत्कृष्ट श्रावक कहलाता है। उसके दो भेद है, प्रथम एक वस्त्रका रखनेवाला और दूसरा कोपीन (लगोटी) मात्रपरिग्रहवाला।।३०१।। धम्मिल्लाणं चयणं करेइ कत्तरि छुरेण वा पढमो । ठाणाइसु पडिलेहइ उवयरणेण पयडप्पा ॥३०२।। भुजेइ पाणिपत्तम्मि भायणे वा सइ समुवइटो। उववासं पुण णियमा चउन्विहं कुणइ पव्वेसु ॥३०३।। पक्खालिऊण पत्त पविसइ चरियाय पंगणे ठिच्चा। " भणिऊण धम्मलाह जायइ भिक्खं सय चेव ॥३०॥ सिग्धं लाहालाहे अदीणवयणो णियत्तिऊण तो । अण्णमि गिहे वच्चइ दरिसइ मोणेण काय वा ॥३०५॥ जइ अद्धवहे कोइ वि भणइ पत्थेइ भोयणं कुणह । भोसण णिययभिक्खं तस्सरणं भुंजए सेसं ॥३०६॥ अहण भणइ तो भिक्खं भमेज णियपोद्दपूरणपमाणं । पच्छा एयम्मि गिहे जाएज्ज पासुगं सलिलं ॥३०७॥ जं कि पि पडियभिक्खं भुजिज्जो सोहिऊण जत्तण । पक्खालिऊण पत्तं गच्छिज्जो गुरुसयासम्मि ॥३०॥ जइ एवं ण रएज्जो काउंरिसगिहम्मि चरियाए । पविसत्ति एयभिक्खं पवित्तिणियमणं ता कुज्जा ॥३०६॥ गंतूण गुरुसमीव पञ्चक्खाणं चउम्विहं विहिणा। गहिऊण तो सब्वं आलोचेज्जा पयत्तेण ॥३१०॥* प्रथम उत्कृष्ट श्रावक (जिसे कि क्षुल्लक कहते हैं) धम्मिल्लोंका चयन अर्थात हजामत कैचीसे अथवा उस्तरेसे कराता है। तथा, प्रयत्नशील या सावधान होकर पीछी आदि उपकरण से स्थान आदिका प्रतिलेखन अर्थात् संशोधन करता है ॥ ३०२ ॥ पाणि-पात्रमें या थाली . आदि भाजनमें (आहार रखकर) एक वार बैठकर भोजन करता है। किन्तु चारों पर्वोमे १. ब. बिइयो। २ ब. वयणं । ३ ब. लेहह मि। ४ ब. कायन्वं । ५ प. अवहे । ६ काउं रिसिगोहणम्मि । ७ध, णियमेणं । (१) गेहादि व्याश्रमं त्यक्त्वा गुर्धन्ते व्रतमाश्रितः । भैच्याशीः यस्तपस्तप्येदुद्दिष्टविरतो हि सः ॥१३॥ * उद्दिष्टविरतो द्वेधा स्यादाद्यो वस्त्रखण्डभाक् । संमूर्ध्वजानां वपनं कर्त्तनं चैव कारयेत् ॥१८॥ गच्छेचाकारितो भोक्त कुर्यातद्भिक्षां यथाशनम् । पाणिपात्रेऽन्यपाने वा भजेद्भुक्तिं निविष्टवान् ॥१८५॥ भुक्त्वा प्रक्षाल्य पादं (घ) च गत्वा च गुरुसन्निधिम् । चतुर्धानपरित्यागं कृत्वाऽऽलोचनमाश्रयेत् ॥१८६॥-गुण० श्रा०
SR No.010731
Book TitleVasunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1952
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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