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________________ प्रोषधप्रतिमा सामायिकप्रतिमा होऊण सुई चेइयगिहम्मि सगिहे व चेइयाहिमुहो। अण्णत्थ सुइपएसे पुध्वमुहो उत्तरमुहो वा ॥२७॥ जिणवयण-धम्म-चेइय-परमेटि-जिणालयाण णिचंपि । जं वंदणं तियालं कीरइ सामाइयं तं खु॥२७५॥ स्नान आदिसे शुद्ध होकर चैत्यालयमे अथवा अपने ही घरमे प्रतिमाके सन्मुख होकर, अथवा अन्य पवित्र स्थानमे पूर्वमुख या उत्तरमुख होकर जिनवाणी, जिनधर्म, जिनबिम्ब, पच परमेष्ठी और कृत्रिम-अकृत्रिम जिनालयोंकी जो नित्य त्रिकाल वंदना की जाती है, वह सामायिक नामका तीसरा प्रतिमास्थान है ॥ २७४-२७५ ॥ काउस्सग्गम्हि ठिो लाहालाहं च सत्तु-मित्तं च । सजोय-विप्पजोयं तिण-कंचण चंदण वासि ॥२६॥ जो पस्सइ समभावं मणम्मि धरिऊण पंचणवयारं। वर-अपाडिहेरेहिं संजुयं जिणसरूवं च ॥२७॥ सिद्धसरूवं झायइ अहवा झाणुत्तमं ससंवेयं । खणमेक्कमविचलंगो उत्तमसामाइयं तस्स ॥२७॥ जो श्रावक कायोत्सर्गमें स्थित होकर लाभ-अलाभको, शत्रु-मित्रको, इष्टवियोगअनिष्ट संयोगको, तृण-कांचनको, चन्दनको और कुठारको समभावसे देखता है, और मनमें पंच नमस्कारमंत्रको धारण कर उत्तम अष्ट प्रातिहार्योसे सयक्त अर्हन्तजिनके स्वरूपको और सिद्ध भगवान्के स्वरूपको ध्यान करता है, अथवा सवेग-सहित अविचल-अंग होकर एक क्षण को भी उत्तम ध्यान करता है, उसके उत्तम सामायिक होती है ॥ २७६-२७८ ॥ एवं तइयं ठाणं भणियं सामाइयं समासेण । पोसहविहिं चउत्थं ठाणं एत्तो पवक्खामि ॥२७९॥ __ इस प्रकार सामायिक नामका तीसरा प्रतिमास्थान संक्षेपसे कहा। अब इससे आगे प्रोषधविधि नामके चौथे प्रतिमास्थानको कहंगा ॥ २७९ ॥ प्रोषधप्रतिमा उत्तम-मज्झ-जहएण तिविहं पोसहविहाणमुद्दिटं। सगसत्तीए मासम्मि चउस्सु पन्वेसु कायश्व ॥२०॥ उत्तम, मध्यम और जघन्यके भेदसे तीन प्रकारका प्रोषध-विधान कहा गया है। यह श्रावकको अपनी शक्तिके अनुसार एक मासके चारो पर्वोमें करना चाहिए ॥ २८० ॥ १. करेइ । २ कुठारं। ३ इ. मज्झम-जहणं । ४ प. पब्वसु । * वैयग्रयं त्रिविधं त्यक्त्वा त्यक्त्वाऽऽरम्भपरिग्रहम् । स्नानादिना विशुद्धांगशुद्धया सामायिकं भजेत् ॥१६॥ गेहे जिनालयेऽन्यत्र प्रदेशे वाऽनघे शुचौ। उपविष्टः स्थितो वापि योग्यकालसमाश्रितम् ॥१६॥ कायोत्सर्गस्थितो भूत्वा ध्यायेत्पंचपदीं हृदि । गुरून् पञ्चाथवा सिद्धस्वरूपं चिन्तयेत्सुधीः ॥१६७॥ +मासे चत्वारि पर्वाणि प्रोषधाख्यानि तानि च । यत्तत्रोपोषणं प्रोषधोपवासस्तदुच्यते ॥१६९५-गुण० श्राव०
SR No.010731
Book TitleVasunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1952
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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