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________________ ७८ प्राकृत साहित्य का इतिहास नहीं सह सकते । अतएव हे पुत्र ! जब तक हम जीवित रहें, विपुल मानवीय कामभोगों का यथेष्ट उपभोग करो। तत्पश्चात् हमारी मृत्यु होने पर, परिणत वय में, तुम्हारी वंश और कुलपरंपरा में वृद्धि होने पर, संसार से उदासीन होकर तुम श्रमण भगवान महावीर के समीप मुंडित हो गृहस्थ धर्म को त्याग अनगार धर्म में प्रव्रज्या ग्रहण करना। मेघकुमार-तुमने कहा है कि संसार से उदासीन होकर प्रव्रज्या ग्रहण करना, लेकिन हे माता! यह मनुष्य भव अध्रुव है, अनियत है, अशाश्वत है, सैकड़ों दुःख और उपद्रवों से आक्रान्त है, विद्युत् के समान चंचल है, जल के बुबुदे के समान, कुश की नोक पर पड़े हुए जलबिंदु के समान, संध्याकालीन राग के समान और स्वप्नदर्शन के समान क्षणभंगुर है, विनाशलील है, कभी न कभी इसका त्याग अवश्य ही करना पड़ेगा । ऐसी हालत में हे अम्मा ! कौन जानता है कौन पहले मरे और कौन बाद में ? अतएव आप लोगों की अनुमतिपूर्वक मैं श्रमण भगवान् महावीर के पादमूल में प्रव्रज्या ग्रहण करना चाहता हूँ। माता-पिता-देखो, ये तुम्हारी पत्नियाँ हैं। ये एक से एक बढ़कर लावण्यवती तथा रूप, यौवन और गुणों की आगार हैं, समान राजकुलों से ये आई हैं। अतएव इनके साथ विपुल कामभोगों का यथेष्ट उपभोग कर, उसके पश्चात् प्रव्रज्या ग्रहण करना। मेघकुमार-आपने कहा है कि एक से एक बढ़कर लावण्यवती पत्नियों के साथ उपभोग करने के पश्चात् प्रव्रज्या । ग्रहण करना, लेकिन हे माता-पिता ! ये कामभोग अशुचि हैं, अशाश्वत हैं, वमन, पित्त, श्लेष्म, शुक्र, शोणित, मूत्र, पुरीष, पीप आदि से परिपूर्ण हैं, ये अध्रुव हैं, अनियत हैं, अशाश्वत हैं, तथा विनाशशील हैं, इसलिये कभी न कभी इनका त्याग अवश्य करना होगा। फिर हे माता-पिता! कौन जानता है कि पहले
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
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