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________________ प्राकृत साहित्य का इतिहास मोहनीय के तीस स्थान, इकतीस सिद्ध आदि गुण, बत्तीस योगसंग्रह, तेंतीस आशातना, चौंतीस बुद्धों (तीर्थंकरों) के अतिशय बताये गये हैं। अर्धमागधी भाषा का यहाँ उल्लेख है । यह भाषा आर्य, अनार्य तथा पशु-पक्षियों तक की समझ में आ सकती थी। पैंतीस सत्य वचन के अतिशय, उत्तराध्ययन के छत्तीस अध्ययन, चवालीस ऋषिभाषित अध्ययन, दृष्टिवाद सूत्र के छियालीस मातृकापद, ब्राह्मी लिपि के छियालीस मातृका. अक्षर, चौवन उत्तम पुरुष, अंतिम रात्रि में महावीर द्वारा उपदिष्ट पचपन अध्ययन, बहत्तर कला और भगवती सूत्र के चौरासी सहस्र पदों का यहाँ उल्लेख है। द्वादशांग में वर्णित विषय का कथन किया है। दृष्टिवाद सूत्र में आजीविक और त्रैराशिक सूत्र परिपाटी से उल्लिखित सूत्रों का कथन है जिससे आजीविक मतानुयायियों का जैन आचार-विचार के साथ घनिष्ठ संबंध होने की सूचना मिलती है। फिर तीर्थंकरों के चैत्यवृक्षों आदि का उल्लेख है। १. मक्खलिगोशाल को बौद्धसूत्रों में पूरणकस्सप, अजितकेसकंबली, पकुधकच्चायन, संजय बेलहिपुत्त और निर्गठनाटपुत्त के साथ यशस्वी तीर्थंकरों में गिनाया गया है । गोशालमत के अनुयायी, जैनों की भाँति पंचेन्द्रिय जीव और छह लेश्याओं के सिद्धान्त को स्वीकार करते हैं। वे लोग उदुंबर, पीपल, बड़ आदि फलों और कंदमूल का भक्षण नहीं करते, तथा अंगारकर्म, वनकर्म, शकटकर्म, भाटकर्म, स्फोटककर्म, दंतवाणिज्य, लाक्षावाणिज्य, केशवाणिज्य, रसवाणिज्य, विषवाणिज्य, यंत्रपोलनकर्म, निलांछनकर्म, दवामिदापन, सरोवरदह और तालाब का शोषण तथा असतीपोषण इन १५ कर्मादानों का त्याग करते हैं। जैन आगमों में गोशालक के अनुयायियों द्वारा देवगति पाये जाने का उल्लेख है। व्याख्याप्रज्ञप्ति के अनुसार गोशाल मर कर देवलोक में उत्पन्न हुआ तथा भविष्य में वह मोक्ष का अधिकारी होगा।
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
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