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________________ ७७२ प्राकृत साहित्य का इतिहास विरला उवआरिच्चिअ पिरवेक्वा जलहरब्ब बद्दन्ति । झिजन्ति ताण विरहे विरलच्चिअ सरिप्पवाह व्व ॥ (स० के०४, १६३) मेघों के समान ऐसे पुरुप विरले ही होते हैं जो उपकार करके भी निरपेक्ष रहते हैं। इसी प्रकार नदी के प्रवाह की भाँति ऐसे लोग भी विरले ही होते हैं जो उपकार करने वालों के विरह में क्षीण होते हैं। (अर्थान्तरन्यास अलङ्कार का उदाहरण) विरहाणलो सहिजइ आसाबन्धेण वल्लहजणस्स। एक्कग्गामपवासो माए! मरणं विसेसेड़ ॥ (स० कं० ५, २६५, गा० स० १,४३) हे मा ! प्रियजन की (प्रवास से लौट कर आने की ) आशा से तो विरहाग्नि किसी प्रकार सहन की जा सकती है, किंतु यदि वह एक ही गाँव में प्रवास करता है तो मरण से भी अधिक दुख होता है। विवरीयरए लच्छी वम्भं दठ्ठण जाहिकमलत्थम् । हरिणो दाहिणणयणं रसाउला झत्ति ढक्केइ ॥ (काव्या०, पृ० ५२, १३८; काव्य० प्र०५, १३७) रति में पुरुष के समान आचरण करने वाली रसावेश से युक्त लक्ष्मी नाभिकमल पर विराजमान ब्रह्मा को देखकर अपने प्रियतम विष्णु का दाहिना नेत्र झट से बंद कर देती है ( इससे सूर्यास्त की ध्वनि व्यक्त होती है )। विसमअओ विअ कागवि कागवि बोलेइ अमिअणिम्माओ। काणवि विसामिअमओ कागवि अविसामिअमअओ कालो ॥ (ध्वन्या० उ० ३, पृ० २३५) किन्हीं के लिये काल विषरूप प्रतीत होता है, किन्हीं के लिए अमृतरूप, किन्हीं के लिये विप-अमृतरूप और किन्हीं के लिये न विपरूप और न अमृतरूप । विसवेओ व्व पसरिओ जं जं अहिलेइ वहलधूमुप्पीडो। सामलइज्जइ तं तं रुहिरं व महोअहिस्स विद्रुमदेण्टम् ॥ (स० के०४, ५३; सेतु० ५,५०) विषवेग की भाँति फैला हुआ महाधूम का समूद् जिस-जिस महासमुद्र के रुधिर की भाँति प्रवालमंडल के पास पहुँचता है उसे काला कर देता है (जैसे विष शरीर में प्रविष्ट होकर रुधिर को काला कर देता है)। (साम्य अलङ्कार का उदाहरण) विह(अ)लइ से णेवच्छं पम्माअइ मंढणं गई खलइ। __ भूअछणणचणअम्मि सुहअ ! मा णं पुलोएमु ॥ (स० के० ५, ३०९) भूत-उत्सव के नृत्य के अवसर पर इसका वस्त्र विगलित हो उठता है, आभूषण मलिन हो जाता है और गति स्खलित हो जाती है, अतएव हे सुभग ! इसे न देख।
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
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