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________________ ७२० प्राकृत साहित्य का इतिहास झूला झूलते समय ऊपर चढ़ी हुई मुग्धा की नजर जब तुम पर पड़ी तो वह अपने हाथों से झूले को थामने का प्रयत्न करने लगी।' कअलीगब्भसरिच्छे ऊरु दळूण हलिअसोणहाए । उल्ललइ णहरंजणं चंदिलस्स सेउल्लिअकरस्स ॥ (स० के० ५, १८४) हलवाहे की पुत्रवधू की कदली की भाँति कोमल जंघाएं देखकर स्वेद से गीले हाथ वाले नाई के द्वारा नखों का रंगना भी गीला हो गया। कइआ गओ पिओ अज्ज पुत्ति अजेण कइ दिणा होन्ति । एक्को एइहमेत्ते भणिए मोहं गआ बाला॥ (स० के०, ५, २५४, शृङ्गारप्रकाश २३, ७१) किसी नायिका ने प्रश्न किया कि प्रियतम कब गया है ? उत्तर मिला-आज । नायिका ने पूछा-आज कितने दिन हो गये ? उत्तर-एक । यह सुनते ही नायिका मूछित हो गई। कडुए धूमंधारे अब्भुत्तणमग्गिणो समप्पिहिइ। मुहकमलचुम्बणलेहलम्मि पासटिए दिअरे ॥ (स० के० ५,३९२) मुखरूपी कमल के चुम्बन के अभिलाषी देवर के पास बैठने पर, कडुए धुंए से अंधेरा हो जाने पर ( आग जलाने के लिए ) आग में फूंक मारना भी बन्द हो गया। (सामान्य नायिका का उदाहरण) कणइल्लि चिअ जाणइ कुन्तपलत्ताइ कीरसंलबिरी। पूसअभासं मुंचसु ण हु रे हं घिट्टवाआडी ॥ (स० कं० २, ६८) शुक का वार्तालाप शुकी ही समझ सकती है, अतएव अरे ! तू शुक की भाषा बोलना छोड़ दे, मैं धृष्ट शुकी नहीं हूँ (कोई विट शुक की बोली में अपनी प्रिया का उपहास कर रहा है, उसी के उत्तर में यह उक्ति है। यहाँ कुन्त, कीर और पूम शब्द शुक तथा कगइल्ली और वाआड़ी शब्द शुकी के पर्यायवाची हैं )। कण्डज्जुआ वराई सा अज तए कआवराहेण । अलसाइअरुणविभिआइं दिअहेण सिक्खिविया ॥ (स० के० ५, २०२; गा० स०४, ५२) १. मिलाइये-हेरि हिंडोरे गगन तैं, परी परी सी टूटि । धरी धाय पिय वीच ही करी खरी रस लूटि॥ (बिहारीसतसई ७०५) २. मिलाइये-नैंक उतै उठि बैठिये कहा रहे गहि गेहु । छुटी जाति नहँ-दी छिनकु महदी सूखन देहु ।। ( वही ३७४)
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
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