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________________ ७०४ प्राकृत साहित्य का इतिहास कर सकती, अतएव क्षण भर के लिए मैं विश्राम ले रही हूँ । ( यहाँ चोरी-चोरी की हुई रति की ध्वनि व्यक्त की गई है )। (आर्थी व्यञ्जना) अइ सहि ! वक्कुल्लाविरि च्छुहिहिसि गोत्तस्स मस्थए छारम् । अच्चन्तदत्तदिष्टेण सामि (?) बलिएण हसिएण ॥ (स० के० ३, १५५) हे सखि ! वक्र आलापों के द्वारा अतिशय रूप से देखती हुई, वक्र हास्य द्वारा तू गोत्र के मस्तक पर राख लगायेगी ( अर्थात् नाम दूषित करेगी)। (पूर्ववत् का उदाहरण) अगणिअसेसजुआणा बालअ ! वोलीणलोअमज्जाआ। अइ सा भमइ दिसामुहपसारिअच्छी तुह कएण ॥ (गा० स० १५६; स० के०५,३४१) अरे नादान ! तुम्हारे सिवाय और सब नवयुवकों की अवगणना करके लोकमर्यादा की परवा न करती हुई वह तुम्हें चारों तरफ आँखें खोल-खोलकर देखती फिरती है। अच्छउ ताव मणहरं पिआए मुहदसणं अइमहन्छ । तग्गामखेत्तसीमा वि झत्ति दिठा सुहावेइ ॥ (श्रृंगार०१३, ६०, गा०स०२,६८) प्रिया के अतिमहाध मनोहर मुखदर्शन की क्या बात कहें, उसके गाँव के खेत की सीमा देखकर भी अतिशय सुख प्राप्त होता है। (आहाद का उदाहरण) अच्छेरं व णिहिं विअ सग्गे रज्जं व अमअपाणं व। . आसि म्ह तं मुहुत्तं विणिसणदसणं तिस्सा। (शृङ्गार० १०-४४, गा० स०२, २५) एक क्षण भर के लिये उसे वस्त्रविहीन देखकर मैं आश्चर्यचकित रह गया, मानों कोई निधि मिल गई हो, स्वर्ग का राज्य प्राप्त हो गया हो, या फिर अमृत का पान कर लिया हो । ( रति का उदाहरण ) अजमए गन्तब्वं घणन्धआरे वि तस्स सुहअस्स। अजा णिमीलिअच्छी पअपरिवाडि घरे कुणइ।। (गा०स०३, ४९, स० के०५, १४७) (रात्रि के समय ) घोर अन्धकार होने पर भी आज मुझे उस सुभग के पास अवश्य जाना है, यह सोचकर नायिका अपने घर में आँख मींचकर चलने का अभ्यास करने लगी। अज मए तेण विणा अणुहूअसुहाई संभरन्तीए। अहिणवमेहाणं रवो णिसामिओ वझपडहो च ॥ (गा०स०१,२९, स०के०५१३८) आज उसकी अनुपस्थिति में अनुभव किए हुए सुखों को स्मरण करते हुए मैंने
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
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