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________________ ६७४ प्राकृत साहित्य का इतिहास बनाये थे,' इसके बल ने महिषों को अचेतन किया जा सकता था, और इससे धन पैदा कर सकते थे। प्रभावकचरित (५. ११५१२७ ) में इस ग्रंथ के बल से मछली और सिंह उत्पन्न करने की, तथा विशेषावश्यकभाग्य (गाथा १७७५) की हेमचन्द्रसृरिकृत टीका में अनेक विजानीय द्रव्यों के संयोग से सर्प, सिंह आदि प्राणी और मणि, सुवर्ण आदि अचेतन पदार्थों के पैदा करने का उल्लेख मिलता है। कुवलयमालाकार के कथनानुसार जोणिपाइड में कही हुई बात कभी अमन्य नहीं होती। जिनेश्वरसूरि ने अपने कथाकोपप्रकरण में भी इस शास्त्र का उल्लेख किया है। इस ग्रंथ में ८०० गाथायें हैं। कुलमण्डनसूरि द्वारा विक्रम संवत् १४७३ (ईसवी सन १४१६) में रचित विचारामृतसंग्रह (पृष्ठ आ) में योनिप्राभृत को पूर्वश्रुत से चला आता हुआ स्वीकार किया है । अग्गेणिपुव्वनिग्गयपाहुडसत्थस्स मज्मयारंमि | किंचि उद्देसदेसं धरसेणो वज्जियं भणइ । गिरिउजिंतठिएण पच्छिमदेसे सुरगिरिनयरे । बुड्डतं उद्धरियं दूसमकालप्पयामि ।। प्रखम खण्डेअट्ठावीससहस्सा गाहाणं जत्थवन्निया सत्थे । अग्गेणिपुव्वमज्झे संखेवं वित्थरे मुत्तुं ।। चतुर्थखण्डप्रान्ते योनिप्राभृते । इस कथन से ज्ञात होता है कि अग्रायणीपूर्व का कुछ अंश लेकर घरसेन ने इस ग्रन्थ का उद्धार किया है, तथा इसमें पहले २८ हजार गाथायें थीं, उन्हीं को संक्षिप्त करके योनिप्राभृत में कहा है। १. देखिये बृहत्कल्पभाष्य (१. १३०३, २. २६८१); व्यवहारभाष्य ( १. पृष्ठ ५८); पिंडनियुक्तिभाष्य ४४-४६, दशवैकालिकचूर्णी १. पृष्ठ ४४, ६१६, सूत्रकृतांगटीका ८. पृष्ठ १६५ म; जिनेश्वरसूरि, कथाकोषप्रकरण। २. देखिये प्रोफेसर हीरालाल रसिकदास कापडिया, आगमोनुं दिग्दर्शन, पृष्ठ २३४-३५। -
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
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