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________________ प्रश्नव्याकरण, अन्तकृद्दशा, अनुत्तरोपपातिकदशा, सूर्यप्रज्ञप्ति और चन्द्रप्रज्ञप्ति में आमूल परिवर्तन हो गया था, तथा ज्ञातृधर्मकथा, व्याख्याप्रज्ञप्ति और विपाकसूत्र आदि के परिमाण में ह्रास हो गया था । तात्पर्य यह है कि अनेक सूत्र गलित हो चुके थे, वृद्ध सम्प्रदाय और परम्परायें नष्ट हो गई थीं तथा वाचनाओं में इतनी अधिक विषमता आ गई थी कि सूत्रार्थ का स्पष्टीकरण कठिन हो गया था । आगमों के नामों और उनकी संख्या तक में मतभेद हो गये थे | रायपसेणइय को कोई राजप्रश्नीय, कोई राजप्रसेनकीय और कोई राजप्रसेनजित् नाम से उल्लिखित करते थे। सम्प्रदाय के विच्छिन्न हो जाने से टीकाकार वजी (वजी लिच्छवी) का अर्थ इन्द्र ( वज्रं अस्य अस्तीति ), काश्यप (महावीर का गोत्र) का अर्थ इक्षुरस का पान करनेवाले (काशं उच्छं तस्य विकारः कास्यः रसः स यस्य पानं स काश्यपः) और वैशालीय (वैशाली के रहनेवाले महावीर) का अर्थ विशालगुणसंपन्न ( 'वेसालीए' गुणा अस्य विशाला इति वैशालीयाः) करने लगे थे। वर्णन-प्रणाली में पुनरुक्ति भी यहाँ खूब पाई जाती है; 'जाव' (यावत् ) शब्द से जहाँ-तहाँ इसका दिग्दर्शन कराया गया है। लेकिन यह सब होते हुए भी जो आगम-साहित्य अवशेष बचा है, वह किसी भी हालत में उपेक्षणीय नहीं है। इस विशालकाय साहित्य में प्राचीनतम जैन परम्परायें, अनुश्रुतियाँ, लोककथायें, तत्कालीन रीति-रिवाज, धर्मोपदेश की पद्धतियाँ, आचार-विचार, संयम-पालन की विधियाँ आदि अनेकानेक विषय उल्लिखित हैं जिनके अध्ययन से तत्कालीन सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक अवस्थाओं पर प्रकाश पड़ता है, तथा जैनधर्म के विकास की त्रुटित शृंखलायें जोड़ी जा सकती हैं । उदाहरण के लिये, व्याख्याप्रज्ञप्ति में महावीर का तत्त्वज्ञान, उनकी शिष्य १. पालि-त्रिपिटक में 'जाव' के स्थान में 'पेय्यालं' (पातुं अलं) शब्द का प्रयोग किया गया है।
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
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