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________________ प्राकृत साहित्य का इतिहास करती है । सब लोग बन्दरगाह पर पहुँचते हैं । यहाँ से सुदर्शना शीलमती के साथ जहाज में बैठकर आगे जाती है। इस प्रसंग पर बोहित्थ, खरकुल्लिय, बेदुल्ल, आवत्त (गोल नाव), खुरप्प आदि प्रवहणों के नामोल्लेख हैं जिन पर नेत्तपट्ट, सियवत्थ, दोछडिय, पट्ट, मृगनाभि, मृगनेत्र (गोरोचन) कर्पूर, चीण, पटुंसुय, कुंकुम, कालागुरु, पद्मसार, रन, धृत, तेल, शस्य, वस्ति (मशक), ईंधन, एला, कंकोल, तमालपत्र पोष्फल ( पूगीफल = सुपारी), नारियल, खजूर, द्राक्षा, जातीफल (जायफल ), नाराच, कुंत, मुद्गर, सव्वल (बरछी), तूणा, खुरप्प, खड्ग, जंपाण, सुखासन, खट्ट, तूलि, चाउरी, मसूरिका, गुडुर (डोरा), गुलणिय, पटमंडप, तथा अनेक प्रकार के कनक, रत्न, अंशुक आदि लाद दिये गये। आठवाँ उद्देश अन्य उद्देशों की अपेक्षा बड़ा है । इसमें विमलगिरि का वर्णन, महामुनि का उपदेश, विजयकुमार का शीलमती के साथ परिणयन, विजयकुमार की दीक्षा, धर्मोपदेश, विशुद्धदान के संबंध में वीरभद्र श्रेष्ठी का और शील के संबंध में कलावती का उदाहरण, भावनाधर्म के निरूपण में नरविक्रम का दृष्टांत आदि वर्णित हैं । महिलाओं के कुसंग से दूर रहने का यहाँ उपदेश है। पुत्री के संबंध में कहा है नियघरसोसा परगेहमंडणी कुलहरं कलंकाणं । धूया जेहि न जाया जयम्मि ते सुत्थिया पुरिसा ।। -अपने घर का शोषण करनेवाली, दूसरे के घर को मंडित करनेवाली, पितृघर की कलंकरूप, जिसके पुत्री पैदा नहीं हुई वे पुरुष सुखी हैं। कन्या के योग्य वर की प्राप्ति के संबंध में उक्ति हैसा भणइ जं न लब्भइ वरोऽणुरूवो तओ वरेणाऽलं । वरमुव्वसा वि साला, तक्करभरिया न उ कया वि॥ -यदि योग्य वर नहीं मिलता तो फिर वर-प्राप्ति से ही क्या लाभ ? चोरों से भरी हुई शाला की अपेक्षा उजाड़शाला भली है।
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
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