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________________ ५४८ प्राकृत साहित्य का इतिहास उसकी पूजा-उपासना करते । एक बार पार्श्वनाथ भी वहाँ गये। जिस काष्ठ को कमठ अग्निकुण्ड में जला रहा था, उसमें से पार्श्वनाथ ने एक सर्प निकाल कर दिखाया | इससे कमठ अत्यंत लज्जित हुआ। कमठ मरकर देवयोनि में उत्पन्न हुआ। कुछ समय पश्चात् पार्श्वनाथ ने संसार से उदासीन होकर श्रमण दीक्षा धारण की। उन्होंने अंगदेश में विहार किया। वहाँ एक कुंड नामका सरोवर था जहाँ बहुत से हाथी जल पीने के लिए आते थे। पार्श्वनाथ को कलि पर्वत पर देखकर एक हाथी को अपने पूर्वभव का स्मरण हो आया। यहाँ देवों ने एक मंदिर का निर्माण किया और उसमें पार्श्वनाथ की प्रतिमा विराजमान की, तब से यह पवित्र स्थान कलिकुंड नाम से कहा जाने लगा। अहिच्छत्रा नगरी का भी यहाँ उल्लेख है । कुक्कुडेसर चैत्य के इतिहास पर प्रकाश डाला गया है। चौथे प्रस्ताव में पार्श्वनाथ को केवलज्ञान की प्रानि हो जाती है। सुभदत्त, अजघोष, वसिह, बंभ, सोम, सिरिधर, वारिसेण, भद्दजस, जय, और विजय नाम के दस गणधरों को वे उपदेश देते हैं। राजा अश्वसेन के प्रश्न करने पर पार्श्वनाथ गणधरों के पूर्वभवों का विस्तार से वर्णन करते हैं । यहाँ शाकिनियों का वर्णन करते हुए कहा है कि वे वट वृक्ष के नीचे एकत्रित हुई थीं, डमरू बज रहा था, जोर जोर से चिल्ला रही थीं, और श्मशान से लाये हुए एक मुर्दे को लेकर बैठी हुई थीं। किसी कापालिक के विद्यासाधन का भी उल्लेख है। कृष्ण चतुर्दशी के दिन श्मशान में पहुंचकर एक स्थान पर मंडल बनाया, उस पर एक अक्षत मुर्दे को स्नान करा कर रक्खा और उस पर चंदन का लेप किया। तत्पश्चात् अपने दायें हाथ के पास एक तलवार रक्खी । मुर्दे के पाँवों को जल से सींचा और सब दिशाओं को बलि अर्पित की। फिर कापालिक नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि रख १. जिनप्रभ के विविधतीर्थकल्प के अन्तर्गत कलिकुंड कुक्कुडेसर तीर्थ (१५) में भी इसका वर्णन है।
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
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