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________________ उपदेशपद ४९९ प्रकार दीर्घसंसारी होने के कारण धर्म को प्राप्त करके भी यह जीव अज्ञान आदि के कारण उसे सुरक्षित नहीं रख सकता। धर्मआदिका लक्षण प्रतिपादन करते हुए उपदेशपद में कहा हैको धम्मो जीवदया, किं सोक्खमरोग्गया उ जीवस्स | को हो सम्भावो, किं पंडिच्चं परिच्छेओ। किं विसमं कज्जगती, किं लद्धव्वं जणो गुणग्गाही । किं सुहगेझ सुयणो, किं दुग्गेझ खलो लोओ॥' -धर्म क्या है ? जीव दया । सुख क्या है ? आरोग्य | स्नेह क्या है ? सद्भाव । पांडित्य क्या है ? हिताहित का विवेक | विषम क्या है ? कार्य की गति | प्राप्त क्या करना चाहिये ? मनुष्य द्वारा गुण-ग्रहण । सुख से प्राप्त करने योग्य क्या है ? सज्जन पुरुष । कठिनता से प्राप्त करने योग्य क्या है ? दुर्जन पुरुष । ___ महाव्रत अधिकार में समिति गुप्ति का स्वरूप और उनके उदाहरण प्रस्तुत किये हैं। नन्दिषेण चरित के अन्तर्गत वसुदेव की कथा है। नागश्री के चरित में द्रौपदी का आख्यान है। देशविरति गुणस्थान का प्ररूपण करते हुए रतिसुन्दरी आदि के उदाहरण दिये हैं। धर्माचरण में शंखकलावती का उदाहरण है। इस प्रसंग पर शक्कर और आटे से भरे हुए वतन के उलट जाने, खाँडमिश्रित सत्तु और घी की कुंडी पलट जाने तथा उफान से निकले हुए दूध के हाथ पर गिर जाने से किसी सज्जन पुरुष के कुटुंब की दयनीय दशा का चित्रण टीकाकार ने किया है अह सो सक्करचुन्नमज्झिगयपुन्नु विलोट्टई । खंडुम्मीसियसत्तुकुंडिधय बाहु पलोट्टइ। वाउज्जायं कढियदुद्धि लहसि हत्थह पडियं । जं दइविं सजणकुडुंब एरिस निम्मवियं ॥ शंखकलावती के उदाहरण में कपिलनामक ब्राह्मण का १. यह गाथा काव्यानुशासन (पृ. ३९५), काव्यप्रकाश (१०-५२९) और साहित्यदर्पण (पृ० ८१५) में कुछ हेरफेर के साथ उद्धृत है।
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
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