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________________ ४८६ प्राकृत साहित्य का इतिहास लेकिन राजा ने किसी की बात न मानी और वह आत्मधर्म की मुख्यता का ही प्रतिपादन करता रहा। यहाँ बताया गया है कि जैनधर्म के प्रभाव से विजयलक्ष्मी राजा रत्नशेखर को ही प्राप्त हुई। एक बार जब राजा ने प्रौषध उपवास कर रक्खा था तो ऋतुस्नाता रत्नवती पुत्र की इच्छा से उसके पास गई लेकिन राजा ने कहा कि किसी भी हालत में वह अपने व्रत को भंग नहीं कर सकता | रत्नवत्ती को बड़ी निराशा हुई। वह कुपित होकर किसी दास के साथ हाथी पर बैठकर भाग गई। राजा ने घोड़े पर बैठकर उसका पीछा किया, लेकिन उसे न पा सका । यहाँ भी यही दिखाया गया है कि यह केवल इन्द्रजाल था और वास्तव में राजा और रानी दोनों ही धार्मिक प्रवृत्तियों में अपना समय यापन कर रहे थे। प्राकृत और संस्कृत की यहाँ अनेक सूक्तियाँ दी हुई हैं जा दवे होइ मई, अहवा तरुणीसु रुववन्तीसु । ता जइ जिणवरधम्मे, करयलमज्झट्ठिआ सिद्धी । -जितनी बुद्धि धन में अथवा रूपवती तरुणियों में होती है, उतनी यदि जिनधर्म के पालन में लगाई जाये तो सिद्धि हाथ में आई हुई समझिये। जिनप्रतिमा और जिनभवन का निर्माण कराना तथा जिनपूजा करना परम पवित्र कार्य समझा जाने लगा था। देखियेपुत्रं प्रसूते कमलां करोति राज्यं विधत्ते तनुते च रूपम् । प्रमार्टि दुक्खं दुरितं च हन्ति जिनेन्द्रपूजा कुलकामधेनुः ॥ -जिनेन्द्र पूजा से पुत्र की उत्पत्ति होती है, लक्ष्मी की प्राप्ति होती है, राज्य मिलता है, मनुष्य रूपवान होता है, इससे दुख और पाप का नाश होता है, जिनेन्द्रपूजा कुल की कामधेनु है। • ब्रत, उपवास और पर्वो का महत्व भी बहुत बढ़ता जा रहा था
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
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