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________________ नम्मयासुंदरीकहा ४६१ वियरिजइ सच्छंदं पेजइ मज्जं च अमयसारिच्छं। पच्चक्खो विव सग्गो वेसाभावो किमिह बहुणा ? तुझ वि रइरुवाए पुरिसा होहिंति किंकरागारा। वसियरणभाविया इव दाहिति मणिच्छियं दव्वं । एयाओ सव्वाओ अद्धं में दिति नियविढत्तस्स । तं पुण मह इट्टयरी देज्जाहि चउत्थयं भायं ।। -हे सुंदरि ! मानुषी का जन्म दुर्लभ है, तारुण्य क्षणभंगुर है, विशिष्ट सुख का अनुभव करना ही इसका फल है। वह समस्त वेश्याओं को ही प्राप्त होता है, कुलवधुओं को नहीं । विशिष्ट प्रकार का भोजन प्रतिदिन खाने से वह जिह्वा को सुख नहीं देता, प्रतिदिन नया-नया भोजन चाहिये। इसी प्रकार नयेनये पुरुष नये-नये भोगसुख को प्रदान करते हैं । तथा वेश्याएँ स्वच्छंद विचरण करती हैं, अमृत के समान मद्य का १. चतुर्भाणी (पृ०७४ ) में वेश्या को महापथ भौर कुलवधू को कुमार्ग बताया गया है जात्यन्धां सुरतेषु दीनवदनामन्तर्मुखीभाषिणी हृष्टस्यापि जनस्य शोकजननी लजापटेनावृताम् । निर्व्याजं स्वयमप्यदृष्टजधनां स्त्रीरूपबद्धां पशुं कर्तव्यं खलु नैव भो कुलवधूकारां प्रवेष्टुं मनः ॥ -सूरत में निपट अंधी बन जाने वाली, दीनमुख, मुँह के भीतर ही भीतर बात रखने वाली, प्रसन्न आदमी को भी दुखी करने वाली, लज्जा के घूघट से ढकी, भोलेपन से स्वयं भी अपनी जाँध न देखने वाली, ऐसी स्त्रीरूप में बंधे हुए पशु की भाँति कुलवधू में कभी मन नहीं लगाना चाहिए। ___ मैरो मे वधू और वेश्या में केवल मूल्य और ठेके की अवधि का ही अन्तर बताया है, और विवाह को एक अधिक फैशन का प्रकार माना है। देखिए हैवलॉक एलिस सैक्स इन रिलेशन टू सोसायटी, पृ० २२२।
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
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