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________________ समराइञ्चकहा ३९५ बाणभट्ट की कादंबरी की याद आ जाती है। श्रीहर्ष की रत्नावलि से यह प्रभावित है। पूर्वजन्म में समरादित्य का नाम राजकुमार गुणसेन था । अग्निशर्मा उसके पुरोहित का पुत्र था। वह अत्यन्त कुरूप था । राजकुमार मजाक में उसे नगर भर में नचाता और गधे पर चढ़ाकर सब जगह घुमाता था। अग्निशर्मा को यह बहुत बुरा लगा और तंग आकर उसने तापसों की दीक्षा ग्रहण कर ली। इधर गुणसेन राजपद पर अभिषिक्त हो गया। उसने तपोवन में पहुँचकर अग्निशर्मा को भोजन के लिये निमंत्रित किया । अग्निशर्मा राजदरबार में तीन बार उपस्थित हुआ, लेकिन तीनों बार राजा को कामकाज में व्यस्त देख, बिना भोजन किये निराश होकर वापिस लौट गया। उसने सोचा कि अवश्य ही राजा ने बैर लेने के लिये मुझे इतनी बार निमंत्रित करके भी भोजन से वंचित रक्खा है। यह सोचकर वह बहुत क्रुद्ध हुआ और उसने निदान बांधा कि यदि मेरे व्रत में कोई शक्ति है तो मैं जन्म-जन्मांतर में गुणसेन का शत्रु बन कर उसका वध करूँ। इसी निदान के परिणामस्वरूप अग्निशर्मा नौ जन्मों में गुणसेन से अपने बैर का बदला लेता है, और अन्त में शुभ कर्मों का बंध करता है। दूसरे भव में अग्निशर्मा राजा सिंहकुमार का पुत्र बन कर गुणसेन से बदला लेता है। सिंहकुमार का कुसुमावलि से विवाह होता है । इस प्रसंग पर वसन्त का वर्णन, विवाह-मण्डप, कन्या का प्रसाधन और तत्कालीन विवाह के रीति-रिवाजों का लेखक ने सरस का वर्णन किया है। मूल कथा के साथ अन्तर्कथायें जुड़ी हुई हैं जिनके अन्त में निर्वेद, वैराग्य, संसार की असारता, कर्मों की विचित्रता और मन की विचित्र परिणति आदि का उपदेश लक्षित होता है | इन कथाओं में धन के लोभ का परिणाम, निरपराधी को दण्ड, भोजन में विष का मिश्रण, शबरसेना का आक्रमण, कारागृह आदि का प्रभावोत्पादक शैली
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
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