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________________ ३७६ प्राकृत साहित्य का इतिहास लोकानुरंजक उदार वृत्ति का परिचय दिया। आगे चलकर हिन्दी, गुजराती, राजस्थानी आदि लोकभाषाओं में जैन आचार्यों ने अपनी रचनायें प्रस्तुत की। इन रचनाओं में विभिन्न देश और काल में प्रचलित देशी भाषा के शब्दों का अनुपम संग्रह होता रहा। मतलब यह कि अपने जनकल्याणकारी उपदेशों को जनता तक पहुँचाने में उन्होंने मुंह नहीं मोड़ा। 'कूपजल' को छोड़कर वे 'बहते हुए नीर' को ग्रहण करते रहे। जैन कथासाहित्य के अध्येता डाक्टर जॉन हर्टल के शब्दों में 'जैन कथा-साहित्य केवल संस्कृत और अन्य भारतीय भाषाओं के अध्ययन के लिये ही उपयोगी नहीं, बल्कि भारतीय सभ्यता के इतिहास पर इससे महत्त्वपूर्ण प्रकाश पड़ता है। इसमें सन्हेह नहीं कि प्राकृत संस्कृत, अपभ्रंश तथा देशी भाषाओं में लिखे गये कथा-साहित्य के तुलनात्मक अध्ययन से भारतीय सभ्यता और संस्कृति का अधिक स्पष्टरूप हमारे सामने आयेगा तथा भाषाविज्ञानसंबंधी अनेक गुत्थियाँ सुलझ सकेंगी। 0 तरंगवइकहा ( तरंगवतीकथा ) आगम और उनकी टीकाओं में आई हुई प्राकृत कथाओं की चर्चा पहले की जा चुकी है। सुप्रसिद्ध पादलिप्तसूरि सब से पहले जैन विद्वान् हैं जिन्होंने तरंगवती नामका स्वतंत्र कथा-ग्रंथ लिखकर प्राकृत कथा-साहित्य में एक नई परंपरा को जन्म दिया। यह कथा प्राकृत कथा-साहित्य की सब से प्राचीन कथा है जो कई दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। तरंगवइकार के रूप में इसके कर्ता का उल्लेख अनुयोगद्वारसूत्र ( १३०) में मिलता है। निशीथविशेषचूर्णी में लोकोत्तर धर्मकथाओं में तरंगवती के साथ मलयवंती और मगधसेना के नाम उल्लिखित हैं। दश* .. देखिये मान व लिटरेचर • भाव द श्वेताम्बर जैन्स, लीपलिंग, १९२२ . .
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
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