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________________ ३७४ प्राकृत साहित्य का इतिहास भाषाओं की कहावतों और शब्दों का वे यथेच्छ प्रयोग कर सकते थे। इन विद्वानों ने प्राकृत कथा-साहित्य के साथ-साथ व्याकरण, अलंकार, छंद और ज्योतिषशास्त्र आदि की भी रचना कर साहित्य के भंडार को संपन्न बनाया। पहले चौबीस तीर्थकरों, चक्रवर्ती, राम, कृष्ण, और नल आदि के ही चरित्र मुख्यतया लिखे जाते थे, लेकिन अब साधु-साध्वी, राजा-रानी, श्रमण, ब्राह्मण, श्रावक-श्राविका, निर्धन, चोर, जुआरी, धूर्त, ठग अपराधी, दण्डित, चांडाल, वेश्या, दूती, चेटी आदि साधारणजनों का जीवन भी चित्रित किया जाने लगा। जैन आचार्य जहाँ भी जाते वहाँ के लोकजीवन, लोकभाषा, और रीति-रिवाजों का सूक्ष्म अध्ययन कर इसे अपने कथा-ग्रंथों में गुंफित करते । इस प्रकार प्रत्येक गच्छ के विद्वान् साधुओं ने अपने-अपने कथा-अन्थों की रचना आरंभ की। फल यह हुआ कि चन्द्रगच्छ, नागेन्द्रगच्छ, चैत्रगच्छ, वृद्धगच्छ, धर्मघोषगच्छ, हर्षपुरीयगच्छ आदि अनेक गच्छों के विद्वानों ने सैकड़ों-हजारों कथा-ग्रंथों की रचना कर डाली। कथाकोषप्रकरण, आख्यानमणिकोष, कहारयणकोस आदि कथाओं के अनेक संक्षिप्त संग्रह-ग्रंथ इस समय लिखे गये | उत्तर के विद्वानों की भाँति दक्षिण के विद्वान भी अपने पीछे न रहे। इस समय प्राकृत भाषायें न तो बोलचाल की भाषायें रह गई थी और न अब इन भाषाओं में धार्मिक ग्रंथ ही लिखे जाते थे। ऐसी हालत में संस्कृत के बल पर वररुचि आदि के प्राकृत व्याकरणों का अध्ययन कर, लीलाशुक, श्रीकण्ठ, रुद्रदास, और रामपाणिवाद आदि विद्वानों ने प्राकृत भाषा में अपनी रचनाएँ प्रस्तुत की। संस्कृत में कथा साहित्य गुप्त साम्राज्य काल में जब संस्कृत का प्रभाव बढ़ा तो प्राकृत का अध्ययन-अध्यापन कम होने लगा। इस काल में धर्मशाख, पुराण, दर्शन, व्याकरण काव्य, नाटक, ज्योतिष, वैद्यक, आदि
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
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