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________________ १७ अर्धमागधी विकल्प्यन्ते)। त्रिविक्रम ने प्राकृतशब्दानुशासन में आर्ष और देश्य भाषाओं को रूढिगत (रूढत्वात् ) मानकर उनकी स्वतंत्र उत्पत्ति बताते हुए उनके लिये व्याकरण के नियमों की आवश्यकता ही नहीं बताई । इसका यही अर्थ हुआ कि आर्ष भाषा की प्रकृति या आधार संस्कृत नहीं है, वह अपने स्वतंत्र नियमों का पालन करती है (स्वतंत्रत्वाच भूयसा)।' रुद्रट के काव्यालंकार पर टीका लिखते हुए नमिसाधु ने आर्ष भाषा को अर्धमागधी कहते हुए उसे देवों की भाषा बताया है।' बाल, वृद्ध और अनपढ़ लोगों पर अनुकम्पा करके उनके हितार्थ समदर्शियों ने इस भाषा में उपदेश दिया था, और यह भापा आर्य, अनार्य और पशु-पक्षियों तक की समझ में आ सकती थी। इससे यही सिद्ध होता है कि जैसे बौद्धों ने मागधी भापा को सब भाषाओं का मूल माना है, वैसे ही जैनों ने १. देश्यमाष च रूढत्वात्स्वतंत्रत्वाच्च भयसा।' लचम नापेक्षते, तस्य संप्रदायो हि बोधकः ॥ ७, पृ०२। २. आरिसवयणे सिद्धं देवाणं अद्धमागहा वाणी (२. १२)। ३. अम्ह इस्थिबालबुड्ढअक्खरअयाणमाणाणं अणुकंपणत्थं सब्वसत्तसमदरसीहिं अद्धमागहाए भासाते सुत्तं उवदिळं, तं च अण्णेसिं पुरतो ण पगासिजति (आचारांगचूर्णी, पृ० २५५)। ४. अद्धमागहा भासा भासिजमाणी तेसिं सम्वेसिं आयरियमणायरियाणं दुपय-चउप्पय-मिय-पसु-पक्खिसरिसिवाणं अप्पप्पणो भासत्ताए परिणमइ (समवायांग ३४); तथा देखिये ओवाइय ३४, पृ० १४६; पण्णवणा, १ . ३७। वाग्भट ने अलंकारतिलक (१.१) में लिखा है-'सर्वार्धमागधीम् सर्वभाषासु परिणामिणीम् । सार्वीयाम सर्वतोवाचम् सार्वज्ञीम् प्रणिदध्महे' अर्थात् हम उस वाणी को नमस्कार करते हैं जो सब की अर्धमागधी है, सब भाषाओं में अपना परिणाम दिखाती है, सब प्रकार से पूर्ण है और जिसके द्वारा सब कुछ जाना जा सकता है। ५. देखिये विभंग-अट्ठकथा (३८७ इत्यादि)। यहाँ बताया है कि यदि बालकों को बचपन से कोई भी भापा न सिखाई जाये तो वे २प्रा० सा०
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
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