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________________ प्राकृत और महाराष्ट्री १३ १२वें परिच्छेद के सम्बन्ध में पहले कहा जा चुका है कि इस पर भामह की टीका नहीं, इसलिये उसकी प्रामाणिकता पर विश्वास नहीं किया जा सकता। दंडी की उक्ति के संबंध में, जैसा कि पुरुषोत्तम के प्राकृतानुशासन की अपनी फ्रेंच भूमिका में नित्ती डौल्ची महोदया ने बताया है, दंडी उक्त श्लोक द्वारा प्राकृत भाषाओं का वर्गीकरण नहीं करना चाहता, उसके कहने का तात्पर्य है कि महाराष्ट्र में बोली जानेवाली महाराष्ट्री को इसलिये प्रकृष्ट भाषा कहा है क्योंकि यह सूक्तिरूपी रत्नों का सागर है और इसमें सेतुबंध आदि लिखे गये हैं। यह पूरा श्लोक इस प्रकार है महाराष्ट्राश्रयां भाषां प्रकृष्टं प्राकृतं विदुः । सागरः सूक्तिरत्नानां सेतुबन्धादि यन्मयम् ॥ इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि शौरसेनी आदि प्राकृतों से भिन्न महाराष्ट्री सर्वश्रेष्ठ प्राकृत माने जाने के कारण प्राकृत नाम से कही जाने लगी थी। वैसे पुरुषोत्तम ने अपने प्राकृतानुशासन ( ११. १) में महाराष्ट्री और शौरसेनी के ऐक्य का प्रतिपादन किया है। उद्योतनसूरि ने पाययभासा और मरहट्ठयदेसी (भाषा) को भिन्न-भिन्न स्वीकार किया है। वररुचि ने भी जो प्राकृत के सम्बन्ध में नियम दिये हैं उनका हेमचन्द्र के नियमों से मेल नहीं खाता । इससे यही मालूम होता है कि व्याकरणकारों में प्राकृत भाषाशास्त्र के सम्बन्ध में मतैक्य नहीं है । दरअसल बाद में होनेवाले व्याकरणकारों ने केवल अपने से पूर्व उपलब्ध सामाग्री को ही महत्त्व नहीं दिया, बल्कि समय १. देखिये पिशल के 'प्राकृत भाषाओं का व्याकरण' के आमुख में डाक्टर हेमचन्द्र जोशी द्वारा इस भूमिका के कुछ भाग का किया हुआ हिन्दी अनुवाद , पृष्ठ ३। ____२. देखिये डाक्टर ए० एन० उपाध्ये की लीलावईकहा की भूमिका पृष्ठ ७८।
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
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