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________________ आस्रवत्रिभंगी ३२५ समय विक्रम संवत् की १५वीं शताब्दी माना गया है। भावत्रिभंगी में ११६ गाथायें हैं जिनमें औपशमिक, क्षायिक, मिश्र, औदयिक और पारिणामिक भावों का विवेचन है । इस ग्रंथ की संदृष्टि रचना अलग से दी हुई है। आस्रवत्रिभंगी आस्रवत्रिभंगी' श्रुतमुनि की दूसरी रचना है। इसमें ६२ गाथायें हैं, इनमें मिथ्यात्व, अविरमण, कषाय और योग नाम के आस्रवों के भेद-प्रभेदों का विवेचन है | इसकी भी संदृष्टि अलग दी हुई है। सिद्धान्तसार सिद्धान्तसार के कर्ता जिनचन्द्र आचार्य हैं। इनका समय विक्रम संवत् १५१६ ( ईसवी सन् १४६२) के आसपास माना जाता है। इस ग्रन्थ में ७८ गाथाओं में सिद्धांत का सार प्रतिपादन किया है । सिद्धांतसार के ऊपर भट्टारक ज्ञानभूषण ने संस्कृत में भाष्य लिखा है। ज्ञानभूषण का समय वि० सं० १५३४ से १५६१ (ईसवी सन् १४७७ से १५०४) तक माना गया है। ये मूलसंघ, सरस्वतीगच्छ और बलात्कारगण के प्रतिष्ठित विद्वान् थे। अंगपण्णत्ति अङ्गप्रज्ञप्ति में १२ अङ्ग और १४ पूर्वो की प्रज्ञप्ति का वर्णन है । चूलिकाप्रकीर्णप्रज्ञप्ति में सामायिक, स्तव, प्रतिक्रमण, विनय, कृतिकर्म, तथा दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, कल्प-व्यवहार, कल्पाकल्प, महाकल्प, महापुंडरीक, णिसेहिय (निशीथिका) और चतुर्दश प्रकीर्णक (पइण्णा) का उल्लेख है। अङ्गप्रज्ञप्ति के कर्ता शुभचन्द्र हैं जो उपर्युक्त सिद्धान्तसार के भाष्यकर्ता ज्ञानभूषण १. भावत्रिभंगी और आस्रवत्रिभंगी माणिकचन्द दिगम्बर जैन ग्रंथमाला से वि० सं० १९७८ में प्रकाशित भावसंग्रहादि में संगृहीत हैं ।
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
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