SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 319
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३०४ प्राकृत साहित्य का इतिहास का एक प्राचीन ग्रंथ माना जाता है। इसमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यकतप इन चार आराधनाओं का विवेचन है। प्रधानतया मुनिधर्म का ही यहाँ वर्णन है। ध्यान रखने की बात है कि भगवतीआराधना की अनेक मान्यताएँ दिगम्बर मुनियों के आचार-विचार से मेल नहीं खातीं। उदाहरण के लिए, रुग्ण मुनियों के वास्ते अन्य मुनियों द्वारा भोजन-पान लाने का यहाँ निर्देश है । इसी प्रकार विजहना अधिकार में मुनि के मृत शरीर को जंगल में छोड़ आने की विधि बताई है। श्वेताम्बरों के कल्प, व्यवहार, आचारांग और जीतकल्प का भी उल्लेख यहाँ मिलता है। इसमें सब मिलाकर २१६६ (अथवा २१७०) गाथायें हैं जो ४० अधिकारों में विभक्त हैं। भाषा इसकी प्राकृत अथवा जैन-शौरसेनी है। पूर्वाचार्यों द्वारा निबद्ध की हुई रचना के आधार पर पाणितलभोजी शिवार्य अथवा शिवकोटि ने इस आचार-प्रधान ग्रन्थ की रचना की है। भगवनीआराधना के रचनाकाल का ठीक पता नहीं लगा, लेकिन इसके विषय-वणेन से यह ग्रंथ उतना ही प्राचीन लगता है जितने श्वेताम्बरों के आगम-ग्रंथ है। आवश्यकनियुक्ति, बृहत्कल्पभाष्य आदि श्वेताम्बरों के प्राचीन ग्रंथों से भगवतीआराधना की अनेक गाथायें मिलती हैं, इससे भी इस ग्रंथ की प्राचीनता सिद्ध होती है । इस पर . धनाकुलक, वीरभद्रसूरि की आराधनापताका, आराधनामाला आदि ; डॉक्टर ए० एन० उपाध्ये की बृहत्कथाकोश की भूमिका, पृष्ठ ४८-९ । १. मुनि अनन्तकीर्ति दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला में वि० सं० १९८९ में बम्बई से प्रकाशित । दूसरा संस्करण मूलाराधना के नाम से अपराजित और आशाधर की टीकाओं के शाथ शोलापुर से सन् १९३५ में प्रकाशित हुआ है। २. डॉक्टर ए० एन० उपाध्ये ने भगवतीआराधना की गाथाओं का संथारग, भत्तपरिना और मरणसमाहीपइण्णा तथा मूलाचार की गाथाओं से मिलान किया है, देखिये बृहत्कथाकोश की भूमिका, पृष्ठ ५४ फुटनोट; प्रवचनसार की भूमिका, पृष्ठ ३३, फुटनोट ।
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy