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________________ २९२ प्राकृत साहित्य का इतिहास अधिकार का वर्णन है | यहाँ श्रुतज्ञान के भेद, अंगबाह्य और अंगप्रविष्ट के भेद, केवलियों के कवलाहार का विचार, विपुलाचल पर भगवान महावीर द्वारा धर्मतीर्थ का प्ररूपण, आचारांग आदि ११ अङ्गों के विषय का कथन, दिव्यध्वनि का स्वरूप, तीन सी तरेसठ मतों का उल्लेख, १४ पूर्वो के विषय का कथन, नय का विवेचन, कषाय के सम्बन्ध में विचार आदि का वर्णन किया गया है। दूसरी पुस्तक में प्रकृतिविभक्ति का विवेचन है। प्रकृतिविभक्ति के दो भेद हैं-मूलप्रकृतिविभक्ति और उत्तरप्रकृतिविभक्ति । यहाँ मोहनीय कर्म और उसकी उत्तरप्रकृतियों का वर्णन है । मूलप्रकृति से यहाँ मोहनीयकर्म और उत्तरप्रकृति से मोहनीय कर्म की उत्तरप्रकृतियाँ ली गई हैं। मूलप्रकृतिविभक्ति के वर्णन के लिये यतिवृषभ ने ८ और जयधवलाकार ने १७ अनुयोगद्वार रक्खे हैं। उत्तरप्रकृतिविभक्ति के दो भेद हैं-एकैकउत्तरप्रकृतिविभक्ति और प्रकृतिस्थानउत्तरप्रकृतिविभक्ति । पहले भाग में मोहनीय कर्म की २८ प्रकृतियों का पृथक्-पृथक् निरूपण है, दूसरे भाग में मोहनीय कर्म के १५ प्रकृतिक स्थानों का कथन है। इनका अनेक अनुयोगद्वारों की अपेक्षा कथन किया गया है। कसायपाहुड की तीसरी पुस्तक में स्थितिविभक्ति का विवेचन है। स्थितिविभक्ति के भी दो भेद हैं-मूलप्रकृतिस्थितिविभक्ति और उत्तरप्रकृतिस्थितिविभक्ति | इनका अद्धाच्छेद, सर्वविभक्ति, नोसर्व विभक्ति, उत्कृष्टविभक्ति, अनुत्कृष्टविभक्ति आदि २४ अनुयोगद्वारों की अपेक्षा विवेचन किया गया है। चौथी पुस्तक में स्थितिविभक्तिअधिकार नाम के शेषभाग का विवेचन है। यहाँ भुजगार, पदनिक्षेप, वृद्धि और स्थितिसत्कर्मस्थान के अधिकारों को लेकर विषय का विवेचन किया है। कषायप्राभृत की पाँचवीं पुस्तक में अनुभागविभक्ति का प्ररूपण है। इस अधिकार के भी दो भेद हैं-मूलप्रकृतिअनुभागविभक्ति और उत्तरप्रकृतिअनुभागविभक्ति | आचार्य वीरसेन ने मूलप्रकृतिअनुभागप्रकृति का विशेष व्याख्यान संज्ञा, सर्वानुभागविभक्ति, नोसर्वानुभागविभक्ति, उत्कृष्टानुभागविभक्ति, अनुत्कृष्टानुभाग
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
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