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________________ षट्खंडागम का परिचय २८३ अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व का विवेचन किया है। इनमें क्रमशः ३६७,६३ और ३८२ सूत्र हैं। पहले भागों की भाँति यहाँ भी शंका-समाधान द्वारा विषय का स्पष्टीकरण किया है। पूर्व प्ररूपणाओं की भाँति अन्तर प्ररूपणा में भी ओघ (गुणस्थान) और आदेश (मार्गणास्थान) की अपेक्षा बताया है कि जीव किस गुणस्थान या मार्गणास्थान के कम से कम और अधिक से अधिक कितने काल तक के लिये अन्तर को प्राप्त होता है। इसी प्रकार भाव प्ररूपणा में ओघ और आदेश की अपेक्षा औद. यिक आदि भावों का विवेचन है । गुणस्थानों और मार्गणास्थानों में संभव पारस्परिक संख्याकृत हीनता और अधिकता का निर्णय अल्पबहुत्वानुगम नामक अनुयोगद्वार से होता है। यहाँ भी ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश की अपेक्षा अल्पबहुत्व का निर्णय किया गया है। __इस प्रकार जीवस्थान के प्रथम खण्ड की आठों प्ररूपणाओं का विवेचन समाप्त हो जाता है। पखंडागम की छठी पुस्तक जीवस्थान-चूलिका है। इसमें नौ चूलिकायें हैं-प्रकृतिसमुत्कीर्तन, स्थानसमुत्कीर्तन, तीन महादण्डक, उत्कृष्ट स्थिति, जघन्य स्थिति, सम्यक्त्वोत्पत्ति और गतिआगति | इनमें क्रमशः ४६, ११७, २, २, २, ४४,४३, १६ और २४३ सूत्र हैं। क्षेत्र, काल और अन्तर प्ररूपणाओं में जो जीव के क्षेत्र व कालसंबंधी अनेक परिवर्तन बताये हैं वे विशेष कर्मबंध के द्वारा ही उत्पन्न हो सकते हैं, इन्हीं कर्मबंधों का व्यवस्थित निर्देश, प्रकृतिसमुत्कीर्तन नामक चूलिका में किया है। प्रत्येक मुलकर्म की कितनी उत्तरप्रकृतियाँ एक साथ बाँधी जा सकती हैं और उनका बंध कौन से गुणस्थानों में संभव है, इस विषय का प्रतिपादन स्थानसमुत्कीर्तन चूलिका में किया है। प्रथम महादंडक चूलिका में दो सूत्र हैं। यहाँ प्रथम सम्यक्त्व को ग्रहण करने वाला जीव जिन प्रकृतियों को बाँधता है वे प्रकृतियाँ गिनाई गई है, मनुष्य या तिर्यंच को इन प्रकृतियों का स्वामी बताया
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
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