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________________ प्राकृत साहित्य का इतिहास भारतीय आर्यभाषाओं की कितनी ही बोलियों द्वारा समृद्ध हुई । ये बोलियाँ ऋग्वेद से लेकर पाणिनि और पतंजलि के काल तक शताब्दियों तक चलती रहीं। संस्कृत प्रातिशाख्य से लेकर पतंजलि के कालतक निरन्तर परिष्कृत होती रही और अन्त में वह अष्टाध्यायी और महाभाष्य के सूत्रों में निबद्ध होकर सिमट गई। उधर लोकभाषा का अत्रुटित अक्षय प्रवाह शताब्दियों से चला आ रहा था जिसके विविध रूप भिन्न-भिन्न क्षेत्र और काल के जनसाहित्य में दृष्टिगोचर होते हैं। महावीर और बुद्ध ने इसी लोकभाषा को अपनाया और इसमें अपना उपदेशामृत सुना कर जनकल्याण किया । वस्तुतः मध्ययुगीन भारतीय आर्यभाषाओं का यह युग अत्यन्त समृद्ध कहलाया। इस युग में सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक क्षेत्र में जितनी उन्नति हुई उतनी प्राचीन भारतीय आर्यभाषाओं के काल में कभी नहीं हुई। अब तक राजे-महाराजे और महान् नायकों के चरित्रों का शिष्टजनों की भाषा में चित्रण किया जाता था, लेकिन अब लोकभाषा में जन-जीवन का बहुमुखी चित्रण किया जाने लगा जिससे जनसाहित्य की उत्तरोत्तर उन्नति हुई। प्राकृत और अपभ्रंश क्रमशः प्राकृत का भी परिष्कार हुआ और उसने भी साहित्यिक वेशभूषा धारण की | शिलालेखों, तथा क्लासिकल और व्याकरणसंबंधी प्राकृत-साहित्य का अध्ययन करने से इस बात का पता लगता है। बौद्धों के हीनयान सम्प्रदाय द्वारा मान्य त्रिपिटकों की पालि तथा जैन आगमों की अर्ध-प्राकृत (अर्ध-मागधी) प्राकृत बोलियों के ही साहित्यिक रूप हैं। के समान एकरूप और देश-विशेष के कारण या संस्कार के कारण जिसने विशेषता प्राप्त की है और जिसके सत् संस्कृत आदि उत्तर विभेद हैं उसे संस्कृत कहते हैं। सरस्वतीकंठाभरण (२.८) और दशरूपक (२.६५) में प्राकृत को स्त्रियों की भाषा कहा है।
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
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