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________________ २१८ प्राकृत साहित्य का इतिहास गण के लिये आचार्य की आवश्यकता बताई है। जैसे नृत्य बिना नट नहीं होता, नायक बिना स्त्री नहीं होती, गाड़ी के धुरे के बिना चक्र नहीं चलता, वैसे ही गणी अर्थात् आचार्य के बिना गण नहीं चलता। औषधि आदि द्वारा अपने गण की रक्षा करना आचार्य के लिये परमावश्यक है। जैसे बल, वाहन और रथ से हीन निर्बुद्धि राजा अपने राज्य की रक्षा नहीं कर सकता, वैसे ही सूत्र और औषधि से विहीन आचार्य अपने गच्छ की रक्षा करने में समर्थ नहीं होता | पद-पद पर साधुओं को स्त्रियों से सावधान रहने का उपदेश दिया गया है। मनु का अनुकरण करते हुए भाष्यकार भी स्त्रियों को स्वातंत्र्य देने के पक्ष में नहीं हैं जाया पितिव्वसा नारी, दत्ता नारी पतिव्वसा। विहवा पुत्तवसा नारी, नस्थि नारी सयंवसा ॥ -बाल्यावस्था में नारी पिता के, विवाहित होने पर पति के और विधवा होने पर वह अपने पुत्र के वश में रहती है, वह कभी भी स्वाधीन नहीं रहती। __इन सब उपदेशों के बावजूद अनेक प्रसंग ऐसे होते थे जब कि साधु अपने संयम से च्युत हो जाते, लेकिन प्रायश्चित्त द्वारा उन्हें शुद्ध कर लिया जाता था | बीमारी आदि फैल जाने पर देशान्तर जाने में उन्हें बहुत-सी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता | मार्ग में उन्हें चोर, जंगली जानवर, सर्प, गौल्मिक, आरक्षक, प्रत्यनीक (विद्वेष करनेवाले), कर्दम और कंटक आदि का भय रहता । राजसभा में वाद-विवाद में पराजित होने पर अपमानित होना पड़ता | ऐसे समय वे अन्य साधुओं द्वारा पीटे जाते, बाँध लिये जाते और उनका भोजन-पान तक बन्द कर दिया जाता। बहुत से देशों में उन्हें पात्र मिलने में कठिनाई होती। ऐसी हालत में उन्हें नन्दी, पतग्रह, विपग्रह, कमढ़क, विमात्रक और प्रश्रवणमात्रक पात्रों को रखना पड़ता। वर्षाकाल में निम्नलिखित स्थान साधुओं के लिये उत्कृष्ट बताये
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
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