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________________ २०० प्राकृत साहित्य का इतिहास -अंगों का क्या सार है ? आचारांग | आचारांग का क्या सार है ? अनुयोगार्थ अर्थात् उसका विख्यात अर्थ । अनुयोगार्थ का सार प्ररूपणा है । प्ररूपणा का सार चारित्र है। चारित्र का सार निर्वाण है, और निर्वाण का सार अव्याबाध है-ऐसा जिनेन्द्र ने कहा है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये चार मुख्य वर्ण बताते हुए अंबष्ठ (ब्राह्मण पुरुष और वैश्य स्त्री से उत्पन्न), उग्र (क्षत्रिय पुरुष और शूद्र स्त्री से उत्पन्न), निषाद अथवा पाराशर (ब्राह्मण पुरुष और शूद्र स्त्री से उत्पन्न), अयोगव (शूद्र पुरुष और वैश्य स्त्री से उत्पन्न), मागध (वैश्य पुरुष और क्षत्रिय स्त्री से उत्पन्न), सूत (क्षत्रिय पुरुष और ब्राह्मण स्त्री से उत्पन्न), वैदेह (वैश्य पुरुष और ब्राह्मण स्त्री से उत्पन्न ), और चाण्डाल (शूद्र पुरुष और ब्राह्मण स्त्री से उत्पन्न) नामक नौ अवान्तर वर्णों का उल्लेख है। इसके अतिरिक्त, उग्र पुरुष और क्षत्ता स्त्री से उत्पन्न श्वपाक, विदेह पुरुष और क्षत्ता स्त्री से उत्पन्न बुक्कस तथा शूद्र पुरुष और निषाद स्त्री से उत्पन्न कुक्कुरक का उल्लेख किया गया है। इसके पश्चात् दिशाओं का स्वरूप बताया है। फिर पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजकाय, वनस्पतिकाय, त्रस तथा वायुकाय जीवों के भेद-प्रभेद का कथन है। कषाय को समस्त कों का मूल कहा है। नीचे लिखी गाथाओं में विविध वादियों द्वारा 'सकुण्डलं वा वयणं न व त्ति' नाम की समस्यापूर्ति की गई है (१) परिव्राजकभिक्खं पविटेण मएऽज्ज दिळं, पमयामुहं कमलविसालनेत्तं । वक्खित्तचित्तेण न सुठु नायं, सकुण्डलं वा वयणं न वत्ति ॥ -भिक्षा के लिये जाते समय मैंने कमल के समान विशाल नेत्र वाली प्रमदा का मुँह देखा | विक्षिप्त चित्त होने के कारण मुझे पता नहीं लगा कि मुख कुण्डल-सहित था या कुण्डलरहित ? . ..
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
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