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________________ प्राकृत साहित्य का इतिहास एहि ता भुजिमो भोए, माणुस्सं खु सुदुल्लहं । भुत्तभोगी पुणो पच्छा, जिणमग्गं चरिस्सिमो ॥ -हे भद्रे ! सुरूपे ! मंजुभाषिणी ! मैं रथनेमी हूँ, तू मुझसे भयभीत मत हो। हे सुंदरी ! तुझे मुझसे कोई कष्ट न होगा। आओ, हम दोनों भोगों को भोगें। यह मनुष्य जन्म बड़ी कठिनता से प्राप्त होता है। भोग भोगने के पश्चात् फिर हम जिनमार्ग का सेवन करेंगे। राजीमतीजइ सि रूवेण वेसमणो, ललिएण नलकूबरो । तहावि ते न इच्छामि, जइ सि सक्खं पुरंदरो।। धिरत्थु ते जसोकामी ! जो तं जीवियकारणा। वंते इच्छसि आवेडं, सेयं ते मरणं भवे ॥ जइ तं काहिसि भावं जा जा दिच्छसि नारिओ। वायाविधुव्व हडो, अट्ठिअप्पा भविस्ससि ।। -हे रथनेमि ! यदि तू रूप से वैश्रमण, चेष्टा से नलकूबर अथवा साक्षात् इन्द्र ही क्यों न बन जाय, तो भी मैं तुझे न चाहूँगी। हे यश के अभिलाषी ! तुझे धिक्कार है । तू जीवन के लिये वमन की हुई वस्तु का पुनः सेवन करना चाहता है, इससे तो मर जाना श्रेयस्कर है। जिस किसी भी नारी को देख कर यदि तू उसके प्रति आसक्तिभाव प्रदर्शित करेगा तो वायु के झोंके से इधर-उधर डोलनेवाले तृण की भाँति तेरा चित्त कहीं भी स्थिर न रहेगा। तेइसवें अध्ययन में पार्श्वनाथ के शिष्य केशीकुमार और महावीर वर्धमान के शिष्य गौतम के ऐतिहासिक संवाद का उल्लेख है । पार्श्वनाथ ने चार्तुयाम का उपदेश दिया है, महावीर १. मिलाइये धिरत्थु तं विसं वन्तं यमहं जीवितकरणा। वन्तं पचावमिस्सामि मतम्मे जीविता वरं ॥ विसवन्तजातक ( ६९)।
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
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