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________________ महानिसीह १४७ छेदसूत्र माना जाता है।' इसे समस्त प्रवचन का परम सार कहा गया है | निशीथ को लघुनिशीथ और इस सूत्र को महानिशीथ कहा गया है, यद्यपि बात उल्टी ही है। वास्तव में मूल महानिशीथ विच्छिन्न हो गया है, उसे दीमकों ने खा लिया है और उसके पत्र नष्ट हो गये हैं। बाद में हरिभद्रसूरि ने उसका संशोधन किया तथा सिद्धसेन, वृद्धवादि, यक्षसेन, देवगुप्त, यशवर्धन, रविगुप्त, नेमिचन्द्र और जिनदासगणि आदि आचार्यों ने इसे बहुमान्य किया। भाषा और विषय की दृष्टि से इस सूत्र की गणना प्राचीन आगमों में नहीं की जा सकती। इसमें तन्त्रसंबंधी तथा जैन आगमों के अतिरिक्त अन्य ग्रन्थों के भी उल्लेख मिलते हैं। महानिशीथ में छह अध्ययन और दो चूला हैं। सल्लुद्धरण नामके पहले अध्ययन में पापरूपी शल्य की निन्दा और आलोचना करने के लिये १८ पापस्थानक बताये गये हैं। दूसरे अध्ययन में कर्मों के विपाक का विवेचन करते हुए पापों की १. इसकी हस्तलिखित प्रति मुनिपुण्यविजय जी के पास है; यह अन्य शीघ्र ही प्रकाशित होनेवाला है। इसे १९१८ में वाल्टर शूबिंग ने जर्मन भाषा की प्रस्तावनासहित बर्लिन से प्रकाशित किया है। सोजित्रा के श्री नरसिंहभाई ईश्वरभाई पटेल ने इसका गुजराती भावानुवाद किया है। मुनि पुण्यविजयजी की यह हस्तलिखित प्रति मुनि जिनविजयजी की कृपा से मुझे देखने को मिली। २. एस्थ य जत्थ जस्थ पयंपयेणाऽणुलग्गं सुत्तलावगं ण संपज्जइ तत्थ तत्थ सुयहरेहिं कुलिहियदोसो ण दायब्वो त्ति । किंतु जो सो एयस्सं अचिंतचिंतामणिकप्पभूयस्स महानिसीहसुयक्खंधस्स पुवायरिसो मासि तहिं चेव खंडाखंडीए उद्देहिया एहिं हेऊहिं बहवे पण्णगा परिसडिया तहावि अचंतसमुहस्थाइसयं ति इमं महानिसीहसुयक्खंधं कलिग. पवयणस्स परमलारभूयं परं तत्तं महत्थं ति कलिऊण पवयणवच्छल्लत्तणेण। मुनिपुण्यविजयजी की हस्तलिखित प्रति पर से। तथा देखिये जिनप्रभसूरि की विधिमार्गप्रपा ; विविधतीर्थंकल्प ।
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
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