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________________ द्वीपसागरप्राप्ति . १३५ जिन्होंने वि० सं० १०७८ में इस प्रकीर्णक की रचना की। इसमें ६६० गाथायें हैं। द्वीपसागरप्रज्ञप्ति इसमें २८० गाथायें हैं जिनमें द्वीप-सागर का कथन है। यह भी अप्रकाशित है। जोइसकरंडग (ज्योतिष्करंडक) पूर्वाचार्यरचित यह आगम वलभी वाचना के अनुसार संकलित है।' इस पर पादलिप्तसूरि ने प्राकृत टीका की रचना की थी। इस टीका के अवतरण मलयगिरि ने इस ग्रन्थ पर लिखी हुई अपनी संस्कृत टीका में दिये हैं। यहाँ सूर्यप्रज्ञप्ति के विषय का संक्षेप में कथन किया गया है। इसमें २१ प्राभृत हैं जिनमें कालप्रमाण, घटिकादि कालमान, अधिकमासनिष्पत्ति, तिथिसमाप्ति, चन्द्र-नक्षत्र आदि संख्या, चन्द्रादि-गति-गमन, दिन-रात्रि-वृद्धि-अपवृद्धि आदि खगोल सम्बन्धी विषय का कथन है। अंगविज्जा ( अंगविद्या) इसके सम्बन्ध में इस पुस्तक के अन्तिम अध्याय में लिखा जायेगा। पिंडविसोहि (पिंडविशुद्धि) इसके कर्ता जिनवल्लभगणि हैं जो विक्रम संवत् की १२वीं शताब्दी में मौजूद थे। पिंडनिज्जुत्ति के आधार पर उन्होंने . ऋषभदेवकेशरीमल संस्था, रतलाम की ओर से सन् १९२८ में प्रकाशित । २. विजयदान सूरीश्वर जी जैनग्रंथमाला, सूरत द्वारा सन् १९३९ में प्रकाशित ।
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
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